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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
गाथा ३०३ अन्वयार्थ - 'इस कारण से जो सत् विधिरूप (अन्वयरूप, ध्रुवरूप, सामान्यरूप, द्रव्यरूप) अथवा निषेधरूप ( अर्थात् व्यतिरेकरूप-उत्पादव्ययरूप-विशेषरूपपर्यायरूप) भी कहा है, वही सत् (वस्तु = द्रव्य) यहाँ परस्पर की अपेक्षा से किसी एक में कोई दूसरा गर्भित हो जाने से कहा जा सकता है अर्थात् परस्पर सापेक्ष होने से एक-दूसरे में गर्भित हो जाता है।'
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अर्थात् निषेधरूप पर्याय है, वह विधिरूप ध्रुव की ही बनी है और इसलिए वे दोनों एकदूसरे में गर्भित हो जाते हैं और अपेक्षा अनुसार कोई एक ही (द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय से) ज्ञात होते हैं, जबकि प्रमाण चक्षु से उभय अर्थात् दोनों ज्ञात होते हैं।
भावार्थ - ‘इस प्रकार वस्तु अन्वय-व्यतिरेकात्मक सिद्ध होने से जिस समय वस्तु विधिरूप कही जाती है, उस समय निषेधरूप विशेष धर्म गौणरूप से उस विधि में गर्भित हो जाता है (अर्थात् ध्रुव में पर्याय गर्भित हो जाती है) ऐसा समझना, तथा जिस समय वही वस्तु निषेधरूप से विक्षि होती है, उस समय विधिरूप सामान्य भी उसी निषेध में गौणरूप से गर्भित हो जाता है (अर्थात् पर्याय में ध्रुव गर्भित हो जाता है - अर्थात् पर्याय ध्रुव की ही बनी है) ऐसा समझना, क्योंकि अस्तिनास्ति सर्वथा पृथक् नहीं परन्तु परस्पर सापेक्ष है, इसलिए विवक्षित की मुख्यता में अविक्ष गौणरूप से गर्भित रहता है । '
जैन सिद्धान्त में अभाव करने की ऐसी विधि है कि जो मुख्य गौणरूप व्यवस्था है, अन्यथा नहीं; इसलिए जिसे अन्य विधि का आग्रह है - पक्ष है, उसे नियम से मिथ्यात्वी जानना।
गाथा - ३०७ - अन्वयार्थ - 'सारांश यह है कि विधि ही स्वयं (अन्वय ही स्वयं, ध्रुव ही स्वयं, सामान्य ही स्वयं, द्रव्य ही स्वयं) युक्तिवशात् (अर्थात् पर्यायार्थिकनय से, पर्यायदृष्टि से, भेददृष्टि से) निश्चय से (यहाँ याद रखना निश्चय से बतलाया है) निषेधरूप (अर्थात् व्यतिरेकरूप, उत्पाद-व्ययरूप, विशेषरूप, पर्यायरूप ) हो जाता है तथा उसी तरह निषेध भी (अर्थात् व्यतिरेकरूप-उत्पाद - व्ययरूप - विशेषरूप - पर्यायरूप) स्वयं ही युक्तिवश से (अर्थात् द्रव्यार्थिकनय से, द्रव्यदृष्टि से, अभेददृष्टि से) विधिरूप ( अर्थात् अन्वयरूप, ध्रुवरूप, सामान्यरूप, द्रव्यरूप ) हो जाता है। '
अब इस गाथा से अधिक प्रमाण क्या चाहिए वस्तु व्यवस्था समझने के लिये ! यहाँ यही बतलाया है कि द्रव्यदृष्टि अथवा पर्यायदृष्टि अनुसार एक ही वस्तु क्रम द्रव्यरूप (ध्रुवरूप) अथवा पर्यायरूप (उत्पादरूप, व्ययरूप) ज्ञात होती है, वहाँ कोई क्षेत्र अपेक्षा से विभाग नहीं