________________
44
दृष्टि का विषय
ऐसी ही है; अन्य किसी प्रकार से तो द्रव्य का ही अभाव हो जायेगा और वह स्वयं अपने पक्ष काही घातक बनकर मात्र भ्रम में ही रहेगा।
दूसरा, कोई वर्तमान पर्याय को दृष्टि के विषय के लिये बाहर रखे तो पूर्ण द्रव्य ही बाहर हो जायेगा, ऐसा है वस्तुस्वरूप, ऐसी है वस्तु व्यवस्था जैन सिद्धान्त की, जो कि अनेकान्तरूप है, एकान्तरूप नहीं ; इस विधि से द्रव्य को परिणामी नहीं माननेवाले को क्या दोष आयेगा ? उत्तर
गाथा २५८ - अन्वयार्थ - ' तथा निश्चय से केवल एक ध्रौव्यपने का विश्वास करनेमाननेवाले को भी द्रव्य परिणामी नहीं बनेगा तथा उसका परिणामीपना न होने से वह ध्रौव्य, ध्रौव्य भी नहीं रह सकेगा ।'
यहाँ समझना यह है कि जो कोई ध्रौव्यरूप द्रव्य को अपरिणामी मानते हों तो, वह ऐसा एकान्त से नहीं क्योंकि यदि ध्रौव्य अपरिणामी हो तो द्रव्य का ही अभाव होगा और इस कारण से ध्रौव्य का भी अभाव ही होगा, क्योंकि कोई भी वस्तु उसके वर्तमान के बिना नहीं होती। अर्थात् कोई भी द्रव्य (ध्रौव्य) उसकी अवस्था (वर्तमान = पर्याय) बिना होता ही नहीं और यदि ऐसा माना
ये तो उस द्रव्य का (ध्रौव्य का) ही अभाव हो जायेगा; इस कारण से उस ध्रौव्य को अवश्य परिणामी मानना पड़ेगा और वह परिणाम (अर्थात् उपादानरूप ध्रौव्य का कार्य - उसकी अवस्था) को ही उत्पाद-व्ययरूप पर्याय कहा जाता है। और उसमें (पर्याय में) रहे हुए सामान्य भाव (अर्थात् पर्याय जिसकी बनी है वह भाव ) को ध्रौव्य कहा जाता है और उसका लक्षण है यह वैसा ही है और इस लक्षण अपेक्षा से उसे अपरिणामी भी कहा जाता है परन्तु अन्यथा नहीं, अन्यथा समझने सेतो मिथ्यात्व का ही दोष आयेगा । उपसंहार
-
गाथा २६० - अन्वयार्थ – 'ऊपर के दोषों के भय से तथा प्रकृत आस्तिकता को चाहनेवाले पुरुषों को यहाँ पर उत्पादादिक तीनों का उपरोक्त अविनाभाव ही मानना चाहिए। '
अर्थात् यह बात लक्ष्य में लेने योग्य है कि जो कोई इस प्रकार से वस्तु व्यवस्था न मानते हों, उन्हें मिथ्यात्वी ही समझना अर्थात् जो कोई आत्मार्थी है, उन्हें यहाँ बतलायी वस्तु व्यवस्था को ही सम्यक् समझकर अपनाना परम आवश्यक है, अन्यथा मिथ्यात्व के दोष के कारण स्वयं को अनन्त संसार खड़ा ही रहेगा अर्थात् अनन्त दुःख से छुटकारा मिलेगा ही नहीं ।
दूसरा, पंचाध्यायी शास्त्र में इसके अतिरिक्त भी इसी बात को पुष्ट करनेवाली अनेक गाथाएँ हैं परन्तु विस्तार भय के कारण अब हम अमुक ही महत्त्व की गाथाएँ देखेंगे; इसलिए विस्तार रुचिवालों को इस शास्त्र का पूर्णरूप से अभ्यास करना योग्य है।