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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
से भिन्न कहे जा सकते हैं, अन्यथा नहीं, सर्वथा नहीं; वास्तव में तो वहाँ कोई भेद ही नहीं, भेदरूप व्यवहार तो मात्र समझाने के लिए ही है, निश्चयनय से तो द्रव्य अभेद ही है।
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भावार्थ - ‘सत् की सम्पूर्ण अवस्थाएँ ही बारम्बार प्रतिपादित होकर वस्तु कहलाती है (अर्थात् सम्पूर्ण पर्यायों का समूह ही वस्तु है, द्रव्य है), परन्तु वस्तु अपनी अवस्थाओं से कहीं भिन्न नहीं है। (यहाँ जो वस्तु में अपरिणामी और परिणाम ऐसे विभाग मानते हों, उनका निराकरण किया है अर्थात् वैसी मान्यता मिथ्यात्व के घर की है) । इसलिए जैसे गुणमय द्रव्य होने से द्रव्य और गुणों में स्वरूपभेद नहीं होता, इसी प्रकार द्रव्य की अवस्थाएँ ही गुण की अवस्थाएँ कहलाती हैं। इसलिए द्रव्य भी उसकी पर्यायों से भिन्न नहीं है (प्रदेशभेद नहीं है), इसलिए गुण को तवस्थ (अपरिणामी) तथा अवस्थान्तरों को पर्याय मानकर इन दोनों के किसी मध्यवर्ती को अलग द्रव्य मानना ठीक नहीं है इसलिए -'
गाथा १२० - - अन्वयार्थ - 'नियम से जो गुण परिणमनशील होने के कारण से (यहाँ लक्ष्य में लेना आवश्यक है कि गुणों को नियम से परिणमनशील कहा है उसमें कोई अपवाद नहीं है और दूसरा, होने के कारण कहा है अर्थात् वे तीनों काल में उसी प्रकार हैं) उत्पाद-व्ययमय कहलाते हैं, वे ही गुण टंकोत्कीर्ण न्याय से (अर्थात् वे गुण अन्य गुणरूप न होने के कारण से) अपने स्वरूप को कभी भी उल्लंघन नहीं करते, इसलिए वे नित्य कहलाते हैं।' टंकोत्कीर्ण का अर्थ सामान्यरूप से ऐसा का ऐसा ही रहता है ऐसा लिया है, कोई दूसरे प्रकार से अर्थात् अपरिणामी इत्यादि रूप नहीं।
दूसरा, यहाँ कोई ऐसा समझे कि ऐसी तो पुद्गल द्रव्य की व्यवस्था भले हो परन्तु जीवद्रव्य की बात तो निराली ही है, तो उन्हें हम बतलाते हैं कि मात्र पुद्गल द्रव्य ही नहीं, परन्तु छहों द्रव्य की द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अथवा तो उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप वस्तु व्यवस्था तो एकसमान ही है। यदि जीवद्रव्य की कोई अन्य व्यवस्था होती तो भगवान ने और आचार्य भगवन्तों ने शास्त्रों में अवश्य बतलायी ही होती, परन्तु वैसा न होने से ही कुछ बतलाया नहीं है; इसलिए ऐसे मिथ्यात्वरूप आग्रह को छोड़कर वस्तु व्यवस्था जैसी है वैसी ही मानना आवश्यक है, अन्यथा उस जीव ने अनन्त संसारी, अनन्त दुःखी होने को ही आमन्त्रण दिया है कि जिसके ऊपर के करुणाभाव से ही यह लिखा जा रहा है।
भावार्थ - ‘परिणमन की अपेक्षा से जो गुण उत्पाद-व्यययुक्त कहलाते हैं, वे ही गुण गुणत्व सामान्य की अपेक्षा से नित्य कहलाते हैं। उन दोनों अपेक्षाओं से द्रव्य से अभिन्नरूप गुण भी उत्पादव्यय और ध्रौव्ययुक्त कहे हैं... '