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दृष्टि का विषय
नहीं है परन्तु सत् अर्थात् सत्ता एक द्रव्य की वास्तविक (यथार्थ) अभेद-अखण्ड एक ही होती है, भेद अपेक्षा से एक सत्ता के दो, तीन, चार,.. सत् कहे जाते हैं परन्तु वैसा एकान्त से नहीं माना जाता।
भावार्थ - ‘गुणों की प्रतिसमय होनेवाली अवस्था का नाम ही पर्याय है, पर्यायों की सत्ता (सत्) कहीं गुणों से भिन्न नहीं है इसलिए द्रव्य की भाँति वे गुण भी गुण की दृष्टि से नित्य तथा अपनी पर्यायरूप अवस्थाओं से उत्पन्न तथा नष्ट होने के कारण से अनित्य कहने में आते हैं...'
इसलिए समझना यह है कि यदि कोई द्रव्य और पर्याय के प्रदेश भिन्न मानते हों तो उनके स्वचतुष्टय की अपेक्षा से कहे जा सकते हैं परन्तु वास्तविक प्रदेशभेद नहीं है इसलिए ऐसी एकान्त धारणा जीव को मिथ्यादृष्टि बनाती है। इसलिए विधान कोई भी हो उसकी अपेक्षा समझकर बोलना अथवा मानना, एकान्त से नहीं; अन्यथा ऐसी बातें अनेक लोगों के अध:पतन का कारण बनती है; इसलिए ऐसे एकान्त प्ररूपणा के आग्रही मिथ्यादृष्टियों से दूर ही रहना आवश्यक है, अन्यथा आप स्वयं भी अनन्त संसारी मिथ्यादृष्टिरूप अनन्त दु:ख का ही घर बनोगे।
इस कारण ऐसे एकान्त आग्रही लोगों से हमारी प्रार्थना है कि आप किसी भी विधान की अपेक्षा समझे बिना एकान्त से ग्रहण करके, एकान्त का आग्रह रखकर यदि जैनशासन का भला करना चाहते हों तो वह आपकी महान भूलरूप ही है, वह तो जैनशासन के अध:पतन का ही निमित्त बनेगा और कितने ही जीवों के अध:पतन का कारण भी बनेगा और उन सबके अध:पतन की जवाबदारी ऐसे एकान्त प्ररूपणा और एकान्त का आग्रह करनेवालों की ही है, इसलिए उनकी दशा के विषय में विचार कर हमें बहुत ही करुणा उत्पन्न होती है और इसी कारण से हमको यहाँ इतना अधिक स्पष्टीकरण करने की आवश्यकता खड़ी हुई है।
___ गाथा ११९ - अन्वयार्थ - ‘गुणों के तद्वस्थ (अर्थात् अपरिणामी-कूटस्थ), उनके अवस्थान्तर को पर्याय तथा दोनों के मध्यवर्ती को (अर्थात वे दोनों मिलकर) दव्य यह शंकाकार का कहना ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे सम्पूर्ण गुण की अवस्थाएँ आमेडित होकर अर्थात् एक आलाप से पुन: पुन: प्रतिपादित होकर (अनुस्युति से रचित पर्यायों का प्रवाह, वही द्रव्य) वस्तु अर्थात् द्रव्य कहलाता है। उसी प्रकार उसकी उन अवस्थाओं से भिन्न (अर्थात् पर्यायों से भिन्न) कोई भी भिन्न सत्तावाली वस्तु (अर्थात् द्रव्य ध्रौव्य) कही नहीं जा सकती।' - इसका अर्थ स्पष्ट है कि जो द्रव्य है, वही पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से पर्याय है और जो पर्याय है, वही द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से द्रव्य है। वे दोनों भिन्न न होने पर भी अपेक्षा से (प्रमाणदृष्टि से) उन्हें कथंचित् भिन्न कहा जा सकता है और इसीलिए उनके प्रदेश भी अपेक्षा