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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
अर्थात् समझना यह है कि जो उपादान है अर्थात् जो द्रव्य अथवा गुण है, वह स्वयं ही कार्यरूप परिणमता है और उस कार्य की अपेक्षा से वह अनित्य है और उपादान की अपेक्षा से नित्य है, ऐसा स्वरूप है नित्य-अनित्य का; अन्यथा नहीं। यदि कोई इस स्वरूप से विपरीत धारणा सहित स्वयं को सम्यग्दृष्टि मानते हों अथवा मनाते हों तो उन्हें नियम से भ्रम में ही समझना क्योंकि भ्रम की भी शान्ति और आनन्द वेदन में आता है इसलिए वैसे जीवों को यदि अनन्त संसार से बचना हो तो हमारा निवेदन है कि आप अपनी धारणा सम्यक् कर लो।
___ भावार्थ - 'जिस समय ज्ञान घट को छोड़कर पट को विषय करने लगता है, उस समय पर्यायार्थिक दृष्टि से घट ज्ञान का व्यय और पट ज्ञान का उत्पाद होने से ज्ञान को अनित्य कहा जाता है तथा उसी समय पर्यायार्थिकनय की गौणता और द्रव्यार्थिकनय की मुख्यता से (समझना यह है कि जैन सिद्धान्त की समस्त बातें मुख्य-गौण अपेक्षा से ही होती है, एकान्त से नहीं। इसलिए जो एकान्त के आग्रही हैं, वे ऊपर बतलाये अनुसार नियम से मिथ्यात्वी हैं, अनन्त संसारी हैं, इसलिए वैसी धारणा हो तो कृपा करके, अपने ऊपर दया लाकर शीघ्रता से अपनी धारणा ठीक कर लेना अत्यन्त आवश्यक है) देखने पर घटज्ञान और पटज्ञानरूप दोनों अवस्थाओं में ज्ञानपना सामान्य होने से (अर्थात् वे अवस्थाएँ ज्ञानगुण की ही बनी हुई है, इसलिए उन अवस्थाओं को गौण करते ही अर्थात् ज्ञेयाकारों को गौण करते ही वहाँ ज्ञानगुण साक्षात् हाजिर ही है, इसी प्रकार द्रव्य में भी अवस्थाओं को गौण करते ही साक्षात् द्रव्य हाजिर ही है-पूर्ण द्रव्य अवस्थाओंरूप से ही व्यक्त होता है और जो सामान्यरूप से द्रव्य है उसे ही अव्यक्त कहने में आता है और इसलिए वह व्यक्त, अव्यक्त का ही बना हुआ है) ज्ञान को ध्रौव्य अर्थात् नित्य (ऐसा है जैन सिद्धान्त का त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा) भी कहने में आता है (ऐसा है जैन सिद्धान्त का त्रिकाली ध्रुवकूटस्थ-अपरिणामी, अन्यथा नहीं)। इसलिए अपेक्षा वाद से ज्ञानगुण कथंचित् नित्यअनित्यात्मक सिद्ध होता है, परन्तु एकान्तवाद से नहीं।' अर्थात् जिन्हें एकान्त का ही आग्रह है उन्हें अपने पर दया लाकर शीघ्रता से उस एकान्त का आग्रह -पक्ष छोड़कर, यथार्थ धारणा कर लेना अत्यन्त आवश्यक है। यही बात आगे अधिक दृढ़ होती है। जैसे कि
गाथा - ११७ - अन्वयार्थ – 'गुण नित्य हैं तो भी वे निश्चय से अपने स्वभाव से ही प्रत्येक समय परिणमन करते रहते हैं और वह परिणमन भी उन गुणों की ही अवस्था है परन्तु गुणों की सत्ता से उनकी सत्ता (सत्) कहीं भिन्न नहीं है।'
इसलिए एक सत्ता के दो, तीन, चार... सत् माननेवाले यदि अपेक्षा से समझे तो दिक्कत