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समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
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गाथा ११ टीका-'व्यवहारनय सब ही अभूतार्थ होने से (भेदरूप व्यवहार जो कि मात्र आत्मा के स्वरूप का ग्रहण कराने को हस्तावलम्बनरूप जानकर प्ररूपित किया है वह) अविद्यामान, असत्य, अभूत अर्थ को प्रगट करता है (अर्थात् जैसा अभेद आत्मा है, वैसा उससे अर्थात् व्यवहाररूप भेद से वर्णन नहीं किया जा सकता).... यह बात दृष्टान्त से बतलाते हैं(दृष्टान्त में जीव को आगमों में वर्णन किये अनुसार पाँच भावसहित बताकर उसमें से उपादेय ऐसा जीव जो कि चार भावों को गौण करते ही पंचम भावरूप परम पारिणामिकभावरूप =दृष्टि के विषयरूप प्रगट होता है जो कि 'समयसार' जैसे अध्यात्मिक शास्त्र का प्राण है, उसे ग्रहण कराते हैं)। जैसे प्रबल कीचड़ के मिलने से (प्रबल उदय-क्षयोपशमभावसहित) जिसका सहज एक निर्मल भाव (परमपारिणामिकभाव) तिरोभत (आच्छादित) हो गया है ऐसे जल का अनभव करनेवाले (अज्ञानी) पुरुष-जल और कीचड़ का विवेक नहीं करनेवाले बहुत से तो, उसे (जल को जीव को) मलिन ही अनुभव करते हैं (उदय, क्षयोपशमरूप ही अनुभव करते हैं), परन्तु कितने ही (ज्ञानी) अपने हाथ से डाले हुए कतक फल (निर्मली औषधि= बुद्धिरूपी-प्रज्ञाछैनी) के पड़ने मात्र से उत्पन्न जल-कीचड़ के विवेकपने से (अर्थात् कीचड़ जल में होने पर भी जल को स्वच्छ अनुभव कर सकनेवाले आत्मा वर्तमान में उदय, क्षयोपशमरूप परिणमित होने पर भी उसमें छुपे हुए अर्थात् उदय और क्षयोपशमभाव को गौण करते ही जो भाव प्रगट होता है, वह अर्थात् उदय और क्षयोपशमभाव जिसका बना हुआ है वह अर्थात् एक सहज आत्म परिणमनरूप-परमपारिणामिकभावरूप आत्मा को), अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक निर्मल भावपने के (परमपारिणामिकभाव के कारण उसे (जल को आत्मा को) निर्मल ही अनुभव करते हैं; उसी प्रकार प्रबल कर्म के मिलने से जिसका सहज एक ज्ञायकभाव (परमपारिणामिकभाव) तिरोभूत हो गया है, ऐसे आत्मा का अनुभव करनेवाले पुरुष (अज्ञानी)आत्मा और कर्म का विवेक नहीं करनेवाले, व्यवहार से विमोहित हृदयवाले तो उसे (आत्मा को) जिसमें भावों का विश्वरूपपना (अनेकरूपपना) प्रगट है, ऐसा अनुभव करते हैं, परन्तु भूतार्थदर्शी (शुद्धनय को देखनेवाले=ज्ञानी) अपनी बुद्धि से डाले हुए शुद्धनय (प्रज्ञाछैनी) अनुसार बोध होनेमात्र से उत्पन्न हए आत्मा-कर्म के विवेकपने से (भेदज्ञान से) अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भत किये गये सहज एक ज्ञायकभावपने के (परमपारिणामिकभाव के) कारण उसे (आत्मा को) जिसमें एक ज्ञायकभाव (परमपारिणामिकभाव) प्रकाशमान है, ऐसा अनुभव करते हैं.....'
भावार्थ में पण्डितजी ने समझाया है कि जीव को 'जैसा है वैसा' सर्वनय से निर्णय करके