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दृष्टि का विषय
सम्यक् एकान्तरूप शुद्ध जानना (मैंपना करना), नहीं कि एकान्त से अपरिणामी ऐसा शुद्ध जानना । उससे तो मिथ्यादर्शन का ही प्रसंग आता है क्योंकि जिनवाणी स्याद्वादरूप है। प्रयोजनवश नय को मुख्य-गौण करके कहती है। जैसे कि मलिन पर्याय को गौण करते ही शुद्धभावरूप परमपारिणामिकभाव हाजिर ही है, नहीं कि पर्याय को भौतिक रीति से अलग करके। क्योंकि अभेदद्रव्य में भौतिक रीति से पर्याय को अलग करने की व्यवस्था ही नहीं है, इसलिए विभावभाव गौण करते ही (पर्याय रहित का द्रव्य) परमपारिणामिकभावरूप अभेद - अखण्ड आत्मा का ग्रहण होता है, यही सम्यग्दर्शन की विधि है।
गाथा १२ गाथार्थ-‘परमभाव के (शुद्धात्मा के) देखनेवालों को (अनुभव करनेवालों को) तो शुद्ध (आत्मा) का उपदेश करनेवाला शुद्धनय जाननेयोग्य है (अर्थात् शुद्धनय के विषयरूप शुद्धात्मा का ही आश्रय करनेयोग्य है क्योंकि उसके आश्रय से ही श्रेणी माँडकर वे सम्यग्दृष्टि जीव घातिकर्म का नाश करते हैं और केवली होते हैं), और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं (अर्थात् मिथ्यात्वी हैं), वे व्यवहार द्वारा (अर्थात् भेदरूप व्यवहार द्वारा वस्तुस्वरूप समझाकर तत्त्वों का निर्णय कराने के लिये) उपदेश करनेयोग्य है।'
भावार्थ ने पण्डित जयचन्दजी बतलाते हैं कि 'जो कोई जीव जो कि अपरमभाव में स्थित है (अज्ञानी है) वह व्यवहार छोड़े (भेदरूप और व्यवहारधर्मरूप दोनों) और उसे साक्षात् शुद्धोपयोग की प्राप्ति तो हुई नहीं (अर्थात् निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट हुआ नहीं) इसलिए उल्टा अशुभउपयोग में ही आकर, भ्रष्ट होकर चाहे जैसे स्वेच्छाचाररूप से ( स्वच्छन्दता से) प्रवर्तते तो नरकादि गति तथा परम्परा निगोद को प्राप्त होकर संसार में ही भ्रमण करता है । '
यहाँ समझना यह है कि आत्मा अज्ञान अवस्था में चौबीस घण्टे कर्म का बन्ध करता ह है जिससे करुणावन्त आचार्य भगवन्तों ने बतलाया है कि जब तक तत्त्व का निर्णय और अनुभव न हो तब तक उसी के लक्ष्य से (शुद्ध के ही एकमात्र लक्ष्य से) नियम से शुभ में ही रहनेयोग्य है, नहीं कि अशुभ में, क्योंकि अशुभ से तो देव - शास्त्र - गुरुरूप संयोग मिलना भी कठिन हो जाता है। इस बात में जिसका विरोध हो, वह हमें क्षमा करे क्योंकि यह बात हम किसी भी पक्षरहितनिष्पक्षभाव से बतलाते हैं कि जो सर्व आचार्य भगवन्तों ने भी बतलायी है और जहाँ-जहाँ (जिस भी गाथाओं में ) इन बातों का सर्वथा निषेध करना बतलाया है, वह एकमात्र शुद्धभाव का लक्ष्य कराने को बतलाया है, नहीं कि अशुभ में रमने के लिये और मुनिराज को छठवें गुणस्थानक में इस बात का निषेध सातवें गुणस्थानरूप अभेद आत्मानुभूति में स्थित होकर आगे बढ़कर केवलज्ञान