________________
138
दृष्टि का विषय
अनुभूति में) जो निष्णात नहीं है ऐसे निकटवर्ती शिष्यजन को, धर्मी को बतलानेवाले कितने ही धर्मों द्वारा (अर्थात् भेदों द्वारा), उपदेश करते हुए आचार्य का-यद्यपि धर्म और धर्मी का स्वभाव से अभेद है तो भी नाम से भेद उत्पन्न करके (अभेद द्रव्य में द्रव्य-गुण-पर्याय ऐसे भेद उत्पन्न करके) व्यवहारमात्र से ही ऐसा उपदेश है कि ज्ञानी को दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है परन्तु परमार्थ से (अर्थात् वास्तव में) देखने में आवे तो अनन्त पर्यायों को एक द्रव्य पी गया होने से जो एक है... (अर्थात् जो द्रव्य तीनों काल में उन-उन पर्यायरूप परिणमता होने पर भी अपना द्रव्यपना नहीं छोड़ा है-जैसे कि मिट्टी घट पिण्डरूप से परिणमने पर भी मिट्टीपना नहीं छोड़ती और प्रत्येक पर्याय में वह मिट्टीपना व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध से है इसलिए पर्याय अनन्त होने पर भी वह द्रव्य तो एक ही है)। ....एक शुद्ध ज्ञायक ही है।'
गाथा ८ गाथार्थ-'जैसे अनार्य (म्लेच्छ) जन को अनार्य भाषा के बिना कुछ भी वस्तु का स्वरूप ग्रहण कराने को कोई समर्थ नहीं है, वैसे व्यवहार बिना परमार्थ का उपदेश करने को कोई समर्थ नहीं है। (अर्थात् मिथ्यात्वी को भेदरूप व्यवहारभाषा के बिना वस्तु का स्वरूप समझाने को कोई समर्थ नहीं है, इसलिए अभेद तत्त्व में अलग-अलग प्रकार से भेदरूप व्यवहार किया जाता है, जैसे कि द्रव्य-गुण-पर्याय, ज्ञान-दर्शन-चारित्र, उत्पाद-व्यय-ध्रुव, सैंतालीस शक्ति इत्यादि, यह मात्र समझाने के लिए है; नहीं कि अनुभव के लिए। अनुभव तो यथार्थ ऐसे अभेद
आत्मा का ही होता है अर्थात् परमार्थिक आत्मा में कुछ भी भेद न समझना और जब तक भेद में होगा तब तक अभेद का अनुभव होगा ही नहीं क्योंकि भेद तो व्यवहाररूप उपचारमात्र अज्ञानी को स्वरूप ग्रहण कराने के लिए किये हैं, वास्तव में हैं नहीं।)'
___ गाथा ११ गाथार्थ-'व्यवहारनय अभूतार्थ है (अर्थात् ऊपर बतलाये अनुसार भेदरूप व्यवहार अभूतार्थ है, क्योंकि जो भेद में ही रमता है, वह कभी भी सम्यग्दर्शन के विषयरूप अभेद द्रव्य का अनुभव कर ही नहीं सकता और दूसरा, निश्चय से द्रव्य अभेद होने से जो भेद उपजाकर कहने में आता है, वैसे व्यवहाररूप-उपचाररूप भेद आदरणीय नहीं है अर्थात् 'मैंपना' करनेयोग्य नहीं है, इसलिए अभूतार्थ है) और शुद्धनय भूतार्थ है (अर्थात् शुद्धनय का विषय अभेदरूप ‘शुद्धात्मा' है जो कि सम्यग्दर्शन का विषय होने से आदरणीय है-भूतार्थ है) ऐसा ऋषीश्वरों ने दर्शाया है, जो जीव भूतार्थ का (अर्थात् शुद्धात्मा का) आश्रय करता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है।' अर्थात् कोई भी जीव अभेदरूप शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' करके और उसका ही अनुभवन करके सम्यग्दृष्टि हो सकता है, अन्यथा नहीं।