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समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
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ही लोप होगा और निकालनेवाला स्वयं आकाश के फूल की भाँति भ्रम में ही पड़ेगा। इसलिए यहाँ प्रज्ञारूपी छैनी का उपयोग करके कतक फलरूप बुद्धिपूर्वक उन प्रतिबिम्बरूप अर्थात् उदय, क्षयोपशमरूप भावों को गौण करते ही वहाँ साक्षात् शुद्धात्मरूप परमपारिणामिकभाव हाजिर ही है। यही सम्यग्दर्शन की विधि है, कि जो आचार्य भगवान ने और पिण्डत जी ने गाथा ६ में बतलायी है।)'
__ पण्डितजी आगे बतलाते हैं कि ....यहाँ ऐसा भी जानना कि जिनमत का कथन स्याद्वादरूप है इसलिए अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ नहीं मानना ; (यहाँ समझना यह है कि पूर्व में बतलाये अनुसार गाथा-१६४-१६५ में भावास्रवों को जीव से अनन्य कहा है और इसलिए ‘जीव में किसी भी अपेक्षा से राग नहीं होता' जैसी प्ररूपणायें जिनमत बाह्य है) क्योंकि स्याद्वाद प्रमाण से शुद्धता
और अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं और वस्तु धर्म है वह वस्तु का सत्त्व है (अर्थात् वह वस्तु ही है आत्मा ही है) (यहाँ समझना यह है कि गाथा १६४-१६५ में बतलाये अनुसार राग-द्वेषरूप परिणाम होते तो आत्मा में ही हैं-आत्मा ही उन रूप परिणमता है और उस परिणमन की उपस्थिति में भी राग-द्वेष को गौण करते ही उनमें छुपा हुआ परमपारिणामिकभावरूप समयसाररूप= कारणशुद्धपर्यायरूप आत्मा हाजिर ही है); अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से होती है, यही अन्तर है... अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से ऐसा नहीं समझना कि आकाश के फूल की भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है। (अर्थात् जैसा है वैसा समझना, अर्थात् वह है, परन्तु उसे गौण करते ही ज्ञायक हाजिर ही है, अन्यथा) ऐसा सर्वथा एकान्त समझने से मिथ्यात्व है (यहाँ पण्डितजी ने एकान्त प्ररूपणा करते हुए लोगों को सावधान किया है) इसलिए स्याद्वाद की शरण लेकर शुद्धनय का अवलम्बन करना (अर्थात् जीव को पाँच भावरूप जानकर चार भावों को गौण करते ही सम्यक् एकान्तरूप शुद्ध निश्चयनय का विषय ऐसा शुद्धात्मा परमपारिणामिकभाव प्रगट होता है कि जिसका अवलम्बन करना) चाहिए....'
गाथा ७ गाथार्थ-'ज्ञानी को चारित्र, दर्शन, ज्ञान - ये तीन भाव व्यवहार से कहने में आते हैं (अर्थात् ज्ञानी को एकमात्र अभेदभावरूप 'शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' होने से, जो भी विशेष भाव हैं और जो भी भेदरूप भाव हैं, वे व्यवहार कहे जाते हैं); निश्चय से ज्ञान भी नहीं, चारित्र भी नहीं, दर्शन भी नहीं (अर्थात् निश्चय से कोई भेद शुद्धात्मा में नहीं, वह एक अभेद सामान्यभावरूप होने से उसमें भेदरूप भाव और विशेष भाव, ये दोनों भाव नहीं हैं)। ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है।' अर्थात् शुद्ध निश्चयनय का विषय मात्र अभेद ऐसा शुद्धात्मा ही है।
गाथा ७ टीका-'...क्योंकि अनन्त धर्मोंवाले एक धर्मी में (अर्थात् भेद से समझकर अभेदरूप