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दृष्टि का विषय
की भाँति, कर्ता-कर्म का अनन्यपना होने से (अर्थात् कि जो स्वच्छत्वरूप परिणमन= परमपारिणामिकरूप=ज्ञानसामान्य = निष्क्रियभाव है कि जो स्व-पर को जाननेवाले विशेष भाव का ही सामान्यभाव है, इसलिए यदि पर को जानने का निषेध किया जाये तो वह स्वच्छत्व का=भगवान आत्मा के निषेधरूप परिणमेगा और समझे बिना निषेध करनेवाले भ्रम को = भ्रमित दशा को पायेंगे और यह अमूल्य मनुष्य जन्म तथा वीतराग का शासन मिला, वह व्यर्थ गँवायेंगे अर्थात् जो जाननेवाला है वह) ज्ञायक ही है-स्वयं जाननेवाला इसलिए स्वयं कर्ता और स्वयं को जाना इसलिए स्वयं ही कर्म....' (यहाँ स्व-पर को जानना वह भगवान आत्मा में जाने की सीढ़ीरूप से दर्शाया गया है क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है अर्थात् प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है अर्थात् व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, वही नियम है। क्योंकि ज्ञायक ही स्वयं जाननेवाला है। जानना और ज्ञायक (जाननेवाला) को अनन्यपना बताकर जानना (प्रतिबिम्ब) गौण करते ही ज्ञायक (जाननेवाला) ज्ञात होता है, इसलिए सीढ़ीरूप है)।'
भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी बतलाते हैं कि '. 'ज्ञायक' ऐसा नाम भी उसे (अर्थात् शुद्धात्मा को = दृष्टि के विषय को = परमपारिणामिकभावरूप आत्मा को) ज्ञेय को जानने से दिया जाता है क्योंकि ज्ञेय का प्रतिबिम्ब जब झलकता है, तब ज्ञान में वैसा ही अनुभव में आता है, तथापि ज्ञेयकृत अशुद्धता उसे नहीं है क्योंकि जैसा ज्ञेय ज्ञान में प्रतिभासित हुआ, वैसा ज्ञायक का ही अनुभव करने पर (ज्ञेय को गौण करते ही वहाँ) ज्ञायक ही है। 'यह मैं जाननेवाला हूँ, वह मैं ही हूँ, अन्य कोई नहीं।' ऐसा अपने को अपना अभेदरूप अनुभव हुआ, तब उस जाननेरूप क्रिया का कर्ता स्वयं ही है और जिसे जाना, वह कर्म भी स्वयं ही है (यहाँ समझना यह है कि 'आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानता' ऐसी बातें करके आत्मा में जाने का रास्ता (सीढ़ी) बन्द करके क्या मिलेगा ? मात्र भ्रम ही मिलेगा, क्योंकि पर को जानने का निषेध करने से जाननहार काही निषेध होता है) ऐसा एक ज्ञायकपने मात्र (जाननेवाला) स्वयं शुद्ध है - यह शुद्धनय का विषय है। (यहाँ समझना यह है कि प्रथम जो 'दृष्टि के विषय' के सम्बन्ध में बतलाया, वैसे पर्याय से रहित द्रव्य अर्थात् प्रतिबिम्ब से रहित अर्थात् प्रतिबिम्ब को गौण करते ही वहाँ जाननहाररूप से ज्ञायक हाजिर ही है, वही दृष्टि का विषय है। वही परमपारिणामिकभाव है, वही कारणशुद्धपर्याय है, वही कारणशुद्धपरमात्मा है। वही समयसाररूप जीवराजा है अर्थात् यहाँ कुछ भी भौतिक छैनी की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आत्मा अभेद - अखण्ड है । उसमें से कुछ भी निकले ऐसा नहीं है और यदि निकालने की कोशिश होगी तो आत्मा स्वयं ही निकल जायेगा अर्थात् आत्मा का