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समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय
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में अन्य चार भावों को गौण करके परमपारिणामिकभाव में 'मैंपना' करते ही एक ज्ञायकभाव अनुभव में आता है, यही अनुभव की विधि है। जैसे कि राग-द्वेषरूप परिणमित जीव रागी-द्वेषी ज्ञात होने पर भी, वर्तमान में उस रूप होने पर भी, उन राग-द्वेष को गौण करते ही परमपारिणामिकभाव ज्ञात होता है, वह उसका स्वभाव है कि जिसमें मैंपना' करते ही वह जीव स्वसमय' =सम्यग्दर्शनी होता है) द्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा से (ऊपर बताया हुआ द्रव्य का 'स्व' भाव परमपारिणामिकभाव कारणशुद्धपर्याय से) देखा जाये तो दुरन्त कषायचक्र के उदय की (अर्थात् कषाय के समूह के अपार उदयों की) विचित्रता के वश प्रवर्तमान जो पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभ-अशुभभाव, उनके स्वभावरूप नहीं परिणमता (अर्थात् द्रव्य का स्वभाव, वह परमपारिणामिकभावरूप है जो कि प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं; वह मात्र एक ज्ञायकभावरूप है) इसलिए प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं: वही समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से (अर्थात् जीव के चार भाव कि जिसमें अन्य द्रव्य का नैमित्तिकपना है) भिन्नरूप से (अर्थात् जीव के चार भावों को गौण करने पर पंचम भावरूप परमपारिणामिकभावरूप) उपासित किये जाने पर शुद्ध कहलाता है। (यहाँ यह समझना आवश्यक है कि राग किसी भी अपेक्षा से जीव में नहीं है, इत्यादिरूप एकान्त प्ररूपणा जिनमत बाह्य है। इसलिए वैसी प्ररूपणा करनेवाले और उसमें अटके हुए भोले जीव-वैसा माननेवाले भोले जीव भ्रम में रहकर अति उत्तम ऐसा मानव जन्म और वीतरागधर्म को फालतू गँवाते हैं और वीतरागी बनने का एक अमूल्य अवसर गँवाते हैं)।
और दाह्य के (जलने योग्य पदार्थ के) आकाररूप होने से अग्नि को दहन कहा जाता है (अर्थात् ज्ञान को ज्ञेयाकाररूप परिणमने से स्व-पर को जाननेवाला कहा जाता है) तथापि दाह्यकृत अशुद्धता उसे नहीं है; इसी प्रकार ज्ञेयाकार होने से उस 'भाव' (ज्ञानाकार) को ज्ञायकता प्रसिद्ध है (अर्थात् ज्ञान का स्व-पर को जानना प्रसिद्ध है) तथापि ज्ञेयकृत अशुद्धता उसे नहीं है। (क्योंकि वह ज्ञेय को ज्ञेयरूप से तद्रूप से परिणम कर नहीं जानता अर्थात् ज्ञेय को ज्ञान के साथ व्याप्यव्यापक सम्बन्ध नहीं है; उसे अपने आकार=ज्ञानाकार के साथ व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है कि जिससे अशुद्धता उसमें प्रवेश नहीं करती); क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्था में (अर्थात् स्व-पर को जानने के काल में) जो ज्ञायकरूपसे (जाननेवाले रूप से) जो ज्ञात हआ वह स्वरूप-प्रकाशन की (स्वरूप जानने की अर्थात् उन ज्ञेयों को ज्ञानाकाररूप से देखने पर और उन्हें ही ज्ञानरूप से देखने पर अर्थात् ज्ञेयों को गौण करते ही परमपारिणामिकभाव अनुभव में आता है। दर्पण के उदाहरण अनुसार प्रतिबिम्ब को गौण करते ही दर्पण का स्वच्छत्व ज्ञात होता है, ऐसी) अवस्था में भी, दीपक