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दृष्टि का विषय
गाथा ६ गाथार्थ-‘जो ज्ञायकभाव है (अर्थात् जो ज्ञानसामान्यरूप, सहज परिणमनरूप, परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा है) वह अप्रमत्त भी नहीं और प्रमत्त भी नहीं (अर्थात् उसमें सर्व विशेषभावों का अभाव है क्योंकि वह सामान्य ज्ञानमात्र भाव अर्थात् गुणों के सहज परिणमनरूप सामान्यभाव ही है कि जिसमें विशेष का अभाव ही होता है) - इस प्रकार उसे शुद्ध कहते हैं (अर्थात् वर्तमान में शुद्ध न होने पर भी उसका जो सामान्यभाव है वह त्रिकाली शुद्ध होने के कारण उसे शुद्ध कहने में आता है), और जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ (अर्थात् जो जाननेवाला है) वह तो वही है (अर्थात् जो जानने की क्रिया है, उसमें से प्रतिबिम्बरूप ज्ञेय अर्थात् ज्ञानाकार को गौण करते ही वह ज्ञायक अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा ज्ञात होता है, अनुभव में आता है; यही सम्यग्दर्शन की विधि है अर्थात् जो जाननेवाला है, वह ही ज्ञायक है), दूसरा कोई नहीं।'
अर्थात् ज्ञायक दूसरा और जानने की क्रिया दूसरी, ऐसा नहीं है अर्थात् ज्ञायक ही जाननेरूप परिणमित हुआ है; इसलिए ही जाननक्रिया में से ज्ञानाकाररूप प्रतिबिम्ब गौण करते ही, ज्ञायक हाजरा- हुजूर ही है अर्थात् आत्मा में से अप्रमत्त और प्रमत्त इन दोनों विशेष भावों को गौण करते ही ज्ञायकभाव प्राप्त होता है । पूर्व में हमने यह बात सिद्ध की ही है कि पर्याय ज्ञायकभाव की ही बनी हुई है, इसलिए उसमें से विशेष भाव को गौण करते ही ज्ञायक अर्थात् सामान्य भाव प्रगट होता है, प्राप्त होता है; यही विधि है सम्यग्दर्शन की ।
गाथा ६ टीका-‘जो स्वयं अपने से ही सिद्ध होने से (अर्थात् किसी से उत्पन्न हुआ नहीं होने से) अनादि सत्तारूप है और कभी विनाश को प्राप्त नहीं होने से अनन्त है, नित्य उद्योतरूप होने से (अर्थात् सहज आत्मपरिणमनरूप=परमपारिणामिकभावरूप=कारणशुद्धपर्यायरूप होने से ) क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है, ऐसा जो ज्ञायक एक 'भाव' है (अर्थात् परमपारिणामिकभाव है), वह संसार की अवस्था में अनादि बन्धपर्याय की निरूपणा से (अपेक्षा से) क्षीर-नीर की भाँति कर्म पुद्गलों के साथ एकरूप होने पर भी (अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप जीव के सहज परिणमन में ही बाकी के चार भाव होते हैं जो कि हमने पूर्व में बतलाये ही हैं और समयसार गाथा १६४-१६५ में भी बतलाया ही है कि 'संज्ञ आस्रव जो कि जीव में ही होते हैं, वे जीव के ही अनन्य परिणाम हैं' = जीव ही उस रूप परिणमित हुआ है अर्थात् जीव में एक शुद्धभाग और दूसरा अशुद्धभाग ऐसा नहीं समझकर, समझना ऐसा है कि जीव उदय-क्षयोपशमभावरूप परिणमित हुआ है अर्थात् जीव में छिपे हुए स्वच्छत्वरूप जो जीव का परिणमन है जो कि परमपारिणामिकभाव कहलाता है, वह भाव ही अन्य चार भाव का सामान्य भाव है अर्थात् जीव