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प्रस्तावना
XIV
अतिरिक्त पूरा द्रव्य वह दृष्टि का विषय है-कथन कोई भी हो परन्तु व्यवस्था तो यहाँ बतलायी तद्नुसार है अर्थात् गौण करने की और मुख्य करने की ही है।
शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय है वही उपादेयरूप शुद्धात्मा है और वही सम्यग्दर्शन का विषय है। इसीलिए अर्थात् भेदज्ञान कराने और शुद्धात्मा का अनुभव कराने के लिए ही नियमसार
और समयसार जैसे आध्यात्मिक शास्त्रों में उसी की महिमा गायी है... उन शास्त्रों में प्रमाण के विषयरूप आत्मा से जितने भाव पुद्गलाश्रित हैं अर्थात् जितने भाव कर्माश्रित (कर्म की अपेक्षा रखनेवाले) हैं इन भावों को परभावरूप से वर्णन किया है अर्थात् उन्हें स्वांगरूप भावों के रूप में वर्णन किया है कि जो भाव हेय हैं अर्थात् 'मैंपना' करनेयोग्य नहीं हैं। सम्यक्त्व-पूर्व की भावभूमि
___ यद्यपि सम्यग्दर्शन आत्मा की शुद्धात्मानुभूतिपूर्वक की प्रतीतिरूप शुद्धदशा है, जिसके लिये अनिवार्यरूप भूमिका तत्त्वविचार एवं भेदज्ञान है; तथापि जिस जीव को सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की अभिलाषा है, भावना है, उसके राग की दिशा भी कोई अलग प्रकार की होती है। भले ही अभी सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हुई है, तथापि सम्यक्त्व-प्राप्ति की भावभूमि में समागत जीव को, सम्यग्दर्शन के लिये अनुकूल निमित्तरूप वीतरागी देवशास्त्र-गुरु के साथ-साथ देशनालब्धि प्रदाता ज्ञानी धर्मात्मा के प्रति भी परमात्मातुल्य अर्पणता का परिणाम उद्भवित होता है; वही परिणाम सम्यग्दर्शन होने पर उनकी समीचीन पहिचान पूर्वक सम्यक् अथवा व्यवहार सम्यग्दर्शन नाम प्राप्त करता है।
इसी प्रकार मद्य, माँस, मधु का सेवन एवं रात्रिभोजन जैसे तीव्र राग की गृद्धता के परिणाम भी उस भूमिका में सम्भव नहीं है। यद्यपि व्रतरूप रात्रिभोजनादि (कृत-कारित-अनुमोदना एवं मन-वचन-कायरूप नवकोटि से त्यागरूप) व्रत प्रतिमा एवं रात्रिभुक्ति त्याग प्रतिमा में होता है; तथापि जैन कुलाचार के रूप में भी जिनका सेवन निषिद्ध है-ऐसा त्याग तो सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये उत्कण्ठित जीव को हो ही जाता है, क्योंकि उसकी भावभूमि इतनी कोमल न हो तो कठोर भावभूमि में तत्त्वविचार ही सम्भव नहीं है। एवं तत्त्वविचार के बिना सम्यग्दर्शन को अवकाश कहाँ ?
इस सम्बन्ध में यह तर्क उठाया जाता है कि महावीर भगवान के जीव को शेर की पर्याय में माँस भक्षण करते हए एवं अंजन चोर जैसे पापी को भी सम्यग्दर्शन हो गया था, तब हम पर ही ये प्रतिबन्ध क्यों?
इसका सीधा समाधान यह है कि भाई! शेर की पर्याय में सम्यग्दर्शन से पूर्व उस जीव की विशुद्धता की धारा का परिज्ञान करना अत्यन्त आवश्यक है, जब उसने दो मुनिराजों को आकाशमार्ग से अपनी ओर आते देखा तो टकटकी लागकर उनकी ओर देखता रहा, वहीं से उसके परिणामों में विशुद्धता की धारा प्रारम्भ हुई, साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि मुनिराजों के उपदेश एवं अपने स्वसन्मुख पुरुषार्थ से सम्यग्दर्शन जैसी लोकोत्तर उपलब्धि हो जाने के पश्चात् उस सिंह के जीव ने आजीवन भोजन का परित्याग कर दिया क्योंकि सिंह जैसी