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XIII
दृष्टि का विषय
है, तब द्रव्य और पर्याय, ऐसे वस्तु के 'दो भावों' को स्वचतुष्टय की अपेक्षा से ऐसा कहा जा सकता है कि दोनों के प्रदेश भिन्न हैं परन्तु वास्तव में वहाँ कुछ भिन्नता ही नहीं है।
इस प्रकार द्रव्य-गुण-पर्याय की अर्थात् वस्तु व्यवस्था की सही समझ अनिवार्य है। सम्यग्दर्शन का स्वरूप एवं विषय :
वर्तमान मुमुक्षुवर्ग में यह विषय दृष्टि का विषय' के रूप में बहुचर्चित है। पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी की सातिशय वाणी में इस महान सत्य का उद्घाटन इस पंचम काल की आश्चर्यकारी घटना है। इसमें निश्चित ही कोई सन्देह नहीं है; तथापि यह भी कम आश्चर्य नहीं है कि गुरुदेवश्री के द्वारा अत्यन्त स्पष्टरूप से एवं जिनागम के आलोक में स्वानुभवपूर्वक प्रतिपादित इस विषय के प्रति भ्रान्त धारणायें भी कम नहीं है। पूर्व में कथित द्रव्यगुण-पर्याय आदि विषयों में द्रव्य-पर्याय अथवा द्रव्य-गुण रूप दो भावों को दो भाग समझ लेने की भूल एवं गौणता को सर्वथा अभाव समझ लेने की महान भूल का भयंकर परिणाम यह हुआ कि दृष्टि के विषय की उपरोक्त-अभिप्राय पूर्वक की समझ एवं चर्चा-वार्ता से दृष्टि का विषय दृष्टि में आया ही नहीं। इसलिए लेखक ने जिनागम के आलोक में इस विषय का जो स्पष्टीकरण किया, उसे आत्महित के लक्ष्य से विचारणीय है।
उक्त सम्पूर्ण विषय का सारभूत तात्पर्य इस प्रकार है
भेदज्ञान से (प्रज्ञाछैनी से) अर्थात् जीव और पुद्गल के बीच भेदज्ञान से अर्थात् जीव के लक्षण से जीव को ग्रहण करना और पुद्गल के लक्षण से पुद्गल को और फिर उनमें प्रज्ञारूपी छैनी से भेदज्ञान करने से शुद्धात्मा प्रगट होता है, वह इस प्रकार की प्रथम तो प्रगट में आत्मा के लक्षण से अर्थात् ज्ञानरूप देखने-जानने के लक्षण से आत्मा को ग्रहण करते ही पुद्गलमात्र के साथ भेदज्ञान हो जाता है और फिर उससे आगे बढ़ने पर जीव के जो चार भाव हैं अर्थात् उदयभाव, उपशमभाव, क्षयोपशमभाव, और क्षायिकभाव-ये चार भाव कर्म की अपेक्षा से कहे हैं और कर्म पुद्गलरूप ही होते हैं इसलिए इन चार भावों को भी पुद्गल के खाते में डालकर, प्रज्ञारूपी बुद्धि से अर्थात् इन चार भावों को जीव में से 'गौण' करते ही जो जीव भाव शेष रहता है, उसे ही परमपारिणामिकभाव शुद्धात्मा... स्वभावभाव सहज ज्ञानरूपी साम्राज्य, शुद्ध चैतन्यभाव... कारण समयसार, कारण परमात्मा, नित्यशुद्ध निरंजन ज्ञानस्वरूप, दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमता ऐसा चैतन्य सामान्यरूप, चैतन्य अनुविधायी परिणामरूप, सहज गुणमणि की खान, सम्यग्दर्शन का विषय (दृष्टि का विषय), इत्यादि अनेक नामों से पहचाना जाता है और उसके अनुभव से ही निश्चय सम्यग्दर्शन कहा जाता है... भेदज्ञान की विधि ऐसी है कि जिसमें जीव के चार भावों को गौण किया और जो शुद्धात्म जीवत्व हाजिर हुआ इस अपेक्षा से उसे कोई ‘पर्यायरहित द्रव्य वह दृष्टि का विषय है ऐसा भी कहते हैं अर्थात् द्रव्य में से कुछ निकालने का ही नहीं है, मात्र विभावभावों को ही गौण करना है और इसी अपेक्षा से कोई कहते हैं कि वर्तमान पर्याय के