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दृष्टि का विषय
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अष्टपाहुड़ की गाथायें अब हम अष्टपाहुड़ शास्त्र की थोड़ी सी गाथायें देखेंगे
'दर्शनपाहुड़' गाथा ८ अर्थ-'जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट है (अर्थात् मिथ्यात्वी है) तथा ज्ञान चारित्र में भी भ्रष्ट है, वे पुरुष भ्रष्ट में भी विशेष (अति) भ्रष्ट है, कोई तो दर्शनसहित है परन्तु ज्ञानचारित्र उन्हें होता नहीं, तथा कोई अन्तरंग दर्शन से भ्रष्ट है तो भी ज्ञान-चारित्र का भलीभाँति पालन करते हैं (यहाँ ज्ञान अर्थात् जिनागम का क्षयोपशम ज्ञान लेना) और जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों से भ्रष्ट हैं, वे तो अत्यन्त भ्रष्ट हैं; वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं परन्तु बाकी के अर्थात् अपने अतिरिक्त अन्य जनों को भी भ्रष्ट करते हैं।'
इस गाथा से स्पष्ट होता है कि जिन सिद्धान्त में अनेकान्त प्रवर्तता है अर्थात् जिन सिद्धान्त में प्रत्येक कथन अपेक्षा से ही होता है और इसलिए कोई स्वच्छन्दता से ऐसा कहे कि सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त अभ्यासार्थ और पाप से बचने के लिये भी अहिंसादि व्रत-तप नहीं होते, उन्हें यहाँ भ्रष्ट से भी अतिभ्रष्ट कहा है और अन्यों को भी वे भ्रष्टरूप प्रवर्तन करानेवाले कहे हैं।
___ अर्थात् इस काल में सम्यग्दर्शन अति दुर्लभ होने के कारण, यदि कोई मिथ्यात्वी जीव (अर्थात् दर्शनविहीन जीव अथवा दर्शनभ्रष्ट जीव) ज्ञान अथवा चारित्र की आराधना करे, तो उसमें कुछ भी गलत नहीं है, मात्र वह ज्ञान और चारित्र उसे मुक्ति दिलाने में शक्तिमान नहीं होने से
और गुणस्थान अनुसार नहीं होने से, वे उसे मात्र अभ्यासरूप और शुभभावरूप ही है, परन्तु उसकी कोई मनाही नहीं है, अपितु उसके लिये यहाँ प्रोत्साहन दिया है, इसलिए सर्व को जिन सिद्धान्त सर्व अपेक्षा से समझना अत्यन्त आवश्यक है, नहीं कि एकान्त से, क्योंकि एकान्त अनेकों के परम अहित का कारण होने में सक्षम है।
‘भावपाहुड़' गाथा ८६ अर्थ-‘अथवा जो पुरुष आत्मा को इष्ट करता नहीं (अर्थात् जिसका लक्ष्य आत्मप्राप्ति नहीं) उसका स्वरूप जानता नहीं (अर्थात् आत्मस्वरूपरूप वस्तु व्यवस्था का सत्यज्ञान नहीं), अंगीकार नहीं करता (अर्थात् आत्मा का अनुभव न करता होने से मिथ्यात्वी है) और सर्व प्रकार के समस्त पुण्य करता है तो भी सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त नहीं करता परन्तु वह पुरुष संसार में ही भ्रमण करता है।'
अर्थात् जिसका लक्ष्य आत्म-प्राप्ति नहीं, ऐसा जीव सर्व प्रकार के समस्त पुण्य करता