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पंचास्तिकाय संग्रह की गाथायें
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पंचास्तिकाय संग्रह की गाथायें अब हम श्री पंचास्तिकाय संग्रह शास्त्र की थोड़ी सी गाथायें देखेंगे
गाथा १६५ अन्वयार्थ-'शुद्धसम्प्रयोग से (शुद्धरूप परिणमित के प्रति भक्तिभाव से) दुःख मोक्ष होता है ऐसा यदि अज्ञान के कारण ज्ञानी (अर्थात् सम्यग्दर्शनरहित क्षयोपशम ज्ञानी) माने, तो वह पर समयरत जीव है।' 'अरहंत आदि के प्रति भक्ति-अनुरागवाली मन्द शुद्धि से क्रम से मोक्ष होता है ऐसा यदि अज्ञान के कारण (शुद्धात्म संवेदन के अभाव के कारण, रागांश के कारण) ज्ञानी को (अर्थात् क्षयोपशम ज्ञानी को) भी मन्द पुरुषार्थवाला झुकाव वर्ते, तो वहाँ तक वह भी सूक्ष्म पर समयरत है।' अर्थात् शुभभावरूप जिनभक्ति से मुक्ति मिलती है, ऐसा जो मानता है वह मिथ्यात्वी है।
गाथा १६६ अन्वयार्थ-'अरहंत, सिद्ध, चैत्य (अरहंत आदि की प्रतिमा), प्रवचन (शास्त्र), मुनिगण और ज्ञान के प्रति भक्ति सम्पन्न जीव बहुत पुण्य बाँधता है, परन्तु वह वास्तव में कर्म का क्षय नहीं करता।'
___ अर्थात् मोक्षमार्ग मात्र स्वात्मानुभूतिरूप सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त मिलता ही नहीं, यही दृढ़ कराना है, इसलिए सर्वजनों को सम्यग्दर्शन के लिये ही सर्व प्रयत्न करना; यही बात अब आगे भी बतलाते हैं।
गाथा १६९ अन्वयार्थ-'इसलिए मोक्षार्थी जीव (मुमुक्षु) नि:संग (अर्थात् अपने को शुद्धात्मरूप अनुभव करके, क्योंकि वह भाव त्रिकाल नि:संग है) और निर्मम (सबके प्रति ममता त्यागकर अर्थात् सर्व संयोगभाव में आदर छोड़कर निर्मम) होकर सिद्धों की (अभेद) भक्ति (शुद्ध
आत्मद्रव्य में स्थिरतारूप पारमार्थिक सिद्ध भक्ति) करता है, इसलिए वह निर्वाण को पाता है (अर्थात् मुक्त होता है)।' हमने पूर्व में बतलाये अनुसार शुद्धात्मा की अभेद भक्ति ही मोक्षमार्ग में कार्यकारी है, नहीं कि अन्ध भक्ति अथवा व्यक्ति रागरूप भक्ति।
गाथा १७२ अन्वयार्थ- इसलिए मोक्षाभिलाषी जीव (मुमुक्षु) सर्वत्र किंचित् राग न करो; ऐसा करने से वह भव्य जीव वीतराग होकर भवसागर को तिरता है।' अर्थात् मोक्षाभिलाषी जीव को मत, पंथ, सम्प्रदाय, व्यक्तिविशेष इत्यादि कहीं भी राग करनेयोग्य नहीं है।