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दृष्टि का विषय
पर का जानना जीव को दोषकारक नहीं परन्तु पर में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि ही नियम से दोषकारक अर्थात् बन्ध का कारण है। जो बात हमने पूर्व में भी बतलायी है।
श्लोक २८७-‘आत्मा को ज्ञानदर्शनरूप जान और ज्ञानदर्शन को आत्मा जान ; स्व और पर ऐसे तत्त्व को (समस्त पदार्थों को) आत्मा स्पष्टरूप से प्रकाशित करता है।' अर्थात् जहाँ भी ज्ञान से अथवा दर्शन से कथन हुआ हो, वहाँ उसे अपेक्षा से पूर्ण आत्मा ही समझना और उसे नियम से स्व-पर प्रकाशक समझना।
श्लोक २९७-'भाव पाँच हैं, उनमें यह परम पंचम भाव (परमपारिणामिकभाव) निरन्तर स्थायी है (अर्थात् तीनों काल ऐसा का ऐसा ही सहज परिणमनरूप शुद्धभावरूप उपजता है, इस अपेक्षा से स्थायी कहा है), संसार के नाश का कारण है और सम्यग्दृष्टियों को गोचर (अर्थात् अनुभव में आता) है, बुद्धिमान पुरुष समस्त राग-द्वेष के समूह को छोड़कर (अर्थात् द्रव्यदृष्टि से समस्त विभावभावों को अत्यन्त गौण करके) तथा उस परम पंचम भाव को जानकर (अर्थात् शुद्धात्मा की अनुभूति करके) अकेला (अर्थात् शुद्धात्मा की अनुभूति के बाद की साधना आभ्यन्तर होने से अकेला कहा है अथवा इस काल में सम्यग्दर्शन की दुर्लभता दर्शाने के लिये अकेला कहा है), कलियुग में पाप वन के अग्निरूप मुनिवररूप से शोभा देता है।' अर्थात् जो बुद्धिमान पुरुष परमपारिणामिकभाव का उग्ररूप से आश्रय करते हैं, वे ही पुरुष पापवन को जलाने में अग्नि समान मुनिवर हैं।
___ श्लोक २९९- आत्मा की आराधनारहित जीव को सापराध (अपराधी) गिनने में आया है (इसलिए) मैं आनन्द मन्दिर आत्मा को (शुद्धात्मा को) नित्य नमन करता हूँ।' अर्थात् आत्मा के लक्ष्य के अतिरिक्त की सर्व साधना-आराधना अपराधयुक्त कही है, क्योंकि उसका फल अनन्त संसार ही है।
इस प्रकार नियमसार शास्त्र में नियम से कारणसमयसाररूप निज शुद्धात्मा जो कि परमपारिणामिकभावरूप अर्थात् सहज परिणमनरूप है, उसे ही जानने को, उसमें ही 'मैंपना' करने को, उसे ही भजने को और उसमें ही स्थिरता करने को कहा है। यही मोक्षमार्ग का निश्चित नियम अर्थात् क्रम है, इसलिए इसे निश्चित नियम का सार अर्थात् नियमसार कहा है।