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नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
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अनुभूति में एकरूप हो जाने की प्रेरणा की है अर्थात् सर्व मुमुक्षु जीवों को वही कर्तव्य है। __गाथा १५९ टीका का श्लोक-‘वस्तु का यथार्थ निर्णय वह सम्यग्ज्ञान है, वह सम्यग्ज्ञान, दीपक की भाँति स्व और (पर) पदार्थों के निर्णयात्मक है (अर्थात् यह सम्यग्ज्ञान वही विवेकयुक्त ज्ञान है कि जो शुद्धात्मा में 'मैंपना' करता होने पर भी, आत्मा को वर्तमान राग-द्वेषरूप अशुद्धि से मुक्त कराने के लिये, विवेकयुक्त मार्ग अंगीकार कराता है) तथा प्रमीति से (ज्ञप्ति से) कथंचित् भिन्न (अर्थात् जो जानना होता है, वह विशेष अर्थात् ज्ञानाकार है जो कि ज्ञान का ही बना हुआ होने पर भी, उस ज्ञानाकार को दृष्टि का विषय प्राप्त करने में गौण करने में आया होने से और वह ज्ञानाकार तथा ज्ञान कथंचित् अभेद होने से अर्थात् एकान्त से भेद नहीं होने से उन्हें कथंचित् भिन्न कहा) है।'
गाथा १६४ अन्वयार्थ-व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशक है; इसलिए दर्शन परप्रकाशक है; व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक है इसलिए दर्शन परप्रकाशक है।'
अर्थात् जो ज्ञान है अथवा दर्शन है, वही आत्मा है और परप्रकाशन में (ज्ञेयाकाररूप ज्ञान के परिणमन में) सामान्य ज्ञान और ज्ञेयाकार अर्थात् ज्ञानाकार ऐसा भेद होने से, स्व से कथंचित् भिन्न कहलाता है। अर्थात् स्व, अभेद और निर्विकल्पस्वरूप है, जबकि परप्रकाशन में ज्ञेयाकाररूप जो ज्ञान का परिणमन होता है वह विकल्परूप है और इसलिए वह भेदरूप होने से उसे व्यवहाररूप कहा है, क्योंकि भेद वह व्यवहार और अभेद वह निश्चय-ऐसी ही जिनागम की रीति है।
गाथा १७० अन्वयार्थ-‘ज्ञान जीव का स्वरूप है, इसीलिए आत्मा, आत्मा को जानता है, यदि ज्ञान आत्मा को न जाने तो आत्मा से व्यतिरिक्त (भिन्न) सिद्ध होगा।'
गाथा १७१ गाथा और अन्वयार्थ-रे! (इसलिए ही) जीव है वह ज्ञान है और ज्ञान है वह जीव है, इस कारण से निज प्रकाशक ज्ञान तथा दष्टि है-आत्मा को ज्ञान जान, और ज्ञान आत्मा है ऐसा जान ; इसमें सन्देह नहीं इसलिए ज्ञान तथा दर्शन स्व-पर प्रकाशक है।'
अर्थात् जहाँ भी ज्ञान से कथन किया हो, वहाँ पूर्ण आत्मा ही समझना और तदुपरान्त कहीं शास्त्रों में ज्ञान को साकार उपयोगवाला होने के कारण पर को जाननेवाला कहा है, और दर्शन को निराकार उपयोगवाला होने के कारण स्व को जाननेवाला कहा है, इस बात का उपरोक्त गाथाओं से निषेध किया है।
गाथा १७२ अन्वयार्थ-'जानते और देखते हुए भी (अर्थात् केवली भगवन्त स्व-पर को जानते-देखते हैं तो भी) केवली को इच्छापूर्वक (वर्तन) नहीं होता, इसलिए उन्हें केवलज्ञानी' कहा है, और इसलिए अबन्धक कहा है क्योंकि उन्हें पर में इष्ट-अनिष्ट बुद्धि नहीं है अर्थात्