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अष्टपाहुड़ की गाथायें
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है तो भी सिद्धि (मोक्ष) प्राप्त नहीं करता परन्तु वह पुरुष संसार में ही भ्रमण करता है इसलिए सर्व मोक्षेच्छुकों को पूर्व में हमने देखा वैसा एकमात्र आत्मा के लक्ष्य से ही शुभ में रहना और अशुभ का त्याग करना, ऐसा है विवेक। अर्थात् पाप का तो त्याग ही; और एकमात्र आत्मप्राप्ति के लक्ष्य से जो भाव हो वह नियम से शुभ ही हो, ऐसी है सहज व्यवस्था, परन्तु जो कोई इससे विपरीत ग्रहण करे तो उसके तो अब बाद के भावों का भी ठिकाना नहीं रहेगा और जिनधर्म इत्यादिरूप उत्तम संयोग भी प्राप्त होना दर्लभ हो जायेंगे। इसलिए शास्त्र में से छल ग्रहण नहीं करना, अन्यथा अनन्त संसार-भ्रमण ही प्राप्त होगा जो कि अनन्त दुःख का कारण है।
'मोक्षपाहुड़' गाथा ९ अर्थ-‘मिथ्यादृष्टि पुरुष अपने देह समान दूसरे की देह को देखकर, यह देह अचेतन है तो भी, मिथ्याभाव से आत्मभाव द्वारा बहुत प्रयत्न से, उसे पर का आत्मा ही मानता है, अर्थात् समझता है।'
मिथ्यात्वी जीव इसी प्रकार से देहभाव पुष्ट करता है। यदि वह साक्षात् समोसरण में भी जाये तो भगवान के देह को ही आत्मा मानकर अथवा यदि वह मन्दिर में जाये तो भगवान की मूर्तिरूप देह को ही आत्मा मानता है और पूजता है और ऐसा करके वह अपना देहाध्यास ही पक्का करता है अर्थात् देहाध्यास ही दृढ़ करता है।
गाथा १८ अर्थ-संसार के दुःख देनेवाले ज्ञानावर्णादिक दुष्ट आठ कर्मों से रहित है (अर्थात् जो सम्यग्दर्शन के विषयरूप शुद्धात्मा है, उसमें द्रव्यदृष्टि से सर्व विभावभाव अस्त हुआ है अर्थात् अत्यन्त गौण हो गया है, इसलिए वह दुष्ट आठ कर्मों से रहित कहा है।) जिसे किसी की उपमा नहीं दी जा सकती, ऐसा अनुपम है, जिसका ज्ञान वही शरीर है (अर्थात् जो सामान्य ज्ञानमात्र भाव है, वह ही. परमपारिणामिकभावरूप शद्धात्मा है वह ही). जिसका नाश नहीं होता ऐस अविनाशी-नित्य है और शुद्ध अर्थात् विकाररहित है, वह केवलज्ञानमयी आत्मा (अर्थात् सर्व गुणों के सहज परिणमनरूप परमपारिणामिकभाव कि जिसे शद्धात्मा भी कहा जाता है, उसके सर्व गण शुद्ध ही परिणमते हैं, इस अपेक्षा से केवलज्ञानमयी कहा है और दूसरा ऊपर बतलाये अनुसार जिसका ज्ञान ही शरीर है अर्थात् वह ज्ञानमात्र भाव होने से उसे केवलज्ञानमयी कहा है) जिन भगवान सर्वज्ञ ने कहा है, वही स्वद्रव्य (अर्थात् वही मेरा स्व है और उसमें ही मेरा मैंपना/एकत्व करनेयोग्य है, इस अपेक्षा से उसे स्वद्रव्य कहा) है।' यह परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा ही उपादेय है और उसमें ही मैंपना' करने से स्वात्मानुभूतिरूप सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, ऐसा इस गाथा में बतलाया है।
गाथा २० अर्थ-'योगी-ध्यानी-मुनि हैं, वे जिनवर भगवान के मत से शुद्धात्मा को ध्यान