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दृष्टि का विषय
(अर्थात् जो ज्ञान सकल इन्द्रियों से होता है, ऐसे ज्ञानाकाररूप विशेष, जिसमें गौण है ऐसा सामान्य ज्ञान है), जो नय और अनय के समूह से दूर है (अर्थात् नयातीत है, क्योंकि नय विकल्पात्मक होते हैं और सम्यग्दर्शन का विषयरूप स्वरूप, सर्व विकल्पों से रहित है अर्थात् वह नयातीत) होने पर भी योगियों को (अर्थात् आत्मज्ञानियों को) गोचर है (अर्थात् नित्य लब्धरूप और कभी उपयोगरूप है), जो सदा शिवमय है (अर्थात् सिद्ध सदृशभाव है), उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों को परम दूर है (क्योंकि वे शुद्धात्मा को एकान्त से ग्रहण करने का प्रयास करते हैं अर्थात् जैसा वह है नहीं, वैसी उसकी कल्पना करके ग्रहण करने का प्रयास करते हैं इसलिए वे मात्र भ्रम में ही रहते हैं और सत्यस्वरूप से योजनों दूर रहते हैं) ऐसा यह अनघ (शुद्ध) चैतन्यमय सहज तत्त्व अत्यन्त जयवन्त (बारम्बार अवलम्बन करने योग्य) है।' __श्लोक १५७-'निज सुखरूपी सुधा के सागर में (यहाँ एक स्पष्टीकरण आवश्यक है कि कोई वर्ग ऐसा मानता है कि योगपद्धति से सुधारस का पान करने से आत्मा का अनुभव होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन होता है। उन्हें एक बात यहाँ समझने योग्य है कि जो अतिन्द्रिय आनन्द है कि जो स्वात्मानुभूति से आता है, उसे ही शास्त्रों में सुधा का सागर अर्थात् सुधारस कहा है, परन्तु किसी शारीरिक क्रिया अथवा तो पुद्गलरूपी रस के विषय की यहाँ बात नहीं है, क्योंकि अनुभव काल में कोई देहभाव होता ही नहीं, स्वयं मात्र शुद्धात्मरूप ही होता है तो पुद्गलरूपी रस की बात ही कहाँ से होगी? अर्थात् होती ही नहीं) डूबते हुए इस शुद्धात्मा को जानकर भव्यजीव परम गुरु द्वारा (इस ज्ञान का प्राय: अभाव होने से इसकी दुर्लभता बतलाने को परम गुरु शब्द प्रयोग किया है) शाश्वत सुख को प्राप्त करते हैं; इसलिए, भेद के अभाव की दृष्टि से (अर्थात् स्वानुभूति में कुछ भेद ही नहीं अर्थात् वहाँ द्रव्य पर्यायरूपी भेद अथवा तो पर्याय के निषेधरूप इत्यादि कोई भेद ही नहीं है, उसमें तो मात्र द्रव्यदृष्टि ही महत्त्व की है कि जिसमें पर्याय ज्ञात ही नहीं होती अर्थात् पूर्ण द्रव्यमात्र शुद्धात्मारूप ही ज्ञात होता है; ऐसी दृष्टि से) जो सिद्धि से उत्पन्न होनेवाले सौख्य (अर्थात् अतीन्द्रिय आनन्द, नहीं कि पुद्गलरूपी सुधारस) द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी (अद्भुत) सहज तत्त्व को (परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा को) मैं भी सदा अति अपूर्व रीति से अत्यन्त भाता हूँ।'
श्लोक १५८-‘सर्व संग से निर्मुक्त, निर्मोहरूप, अनघ और परभाव से मुक्त ऐसे इस परमात्मतत्त्व को (इस प्रकार से भेदज्ञानपूर्वक ग्रहण किये हुए शुद्धात्मा को) मैं निर्वाणरूपी स्त्री से उत्पन्न होनेवाले अनंग सुख के (अतीन्द्रिय सुख के) लिये नित्य सम्भाता हूँ (सम्यक्रूप से भाता हूँ-अनुभव करता हूँ) और प्रणाम करता हूँ।'