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नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
श्लोक १५९-‘निज भाव से भिन्न ऐसे सकल विभाव को छोड़कर (अर्थात् यहाँ भेदज्ञान की विधि बतलायी है) एक निर्मल चिन्मात्र को (ज्ञान सामान्यरूप परमपारिणामिकभाव को ) मैं भाता हूँ। संसारसागर को तिर जाने के लिये, अभेद कहे हुए (ऊपर जिस प्रकार अभेद समझाया है, उस प्रकार से अभेद कहे हुए) मुक्ति के मार्ग को भी मैं नित्य नमन करता हूँ।'
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श्लोक १६० - 'जो कर्म के दूरपने के कारण (अर्थात् कर्म और उनके निमित्त से होनेवाले भावों से भेदज्ञान करने से वे गौण हो गये हैं और स्वयं को शुद्धात्मा प्राप्त हुआ है, उसके कारण ) प्रगट सहजावस्थापूर्वक (अर्थात् सहज परिणमनरूप परम पारिणामिकभाव जो कि पंचम भाव भी कहलाता है, उसमें ही ‘मैंपना' करके) रहा हुआ है, जो आत्मनिष्ठापरायण (आत्मस्थित) समस्त मुनियों के मुक्ति का मूल है ( अर्थात् ऐसे शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' करने योग्य है और उसका ध्यान करनेयोग्य है अर्थात् उसे ही सेवन करने से मुक्ति मिलती है अर्थात श्रेणी मांडी जाती है और केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त होता है और आयु क्षय से मोक्ष पाता है, इसलिए शुद्धात्मा को मुक्ति का मूल कहा है) जो एकाकार है (अर्थात् सदा ऐसा का ऐसा ही उपजता होने से त्रिकाली शुद्ध अर्थात् तीनों काल एक जैसा ही है इसलिए उसे त्रिकाली ध्रुव भी कहा जाता है), जो निज रस के फैलाव से भरपूर होने से (यहाँ निजरस कहा कि जो आत्मा का अरूपी अतिन्द्रिय आनन्द है, नहीं कि कोई रूपी पुद्गल द्रव्यरूप सुधारस ) पवित्र है और जो पुराण है (अर्थात् सनातन हैतीनों काल ऐसा का ऐसा ही उपजता हुआ वह सहज परिणमनरूप परमपारिणामिकभाव कहलाता है), वह शुद्ध-शुद्ध (अर्थात् परम शुद्ध) एक पंचम भाव सदा जयवन्त है।'
श्लोक १६१ - 'अनादि संसार से समस्त जनता को ( जनसमूह को ) तीव्र मोह के उदय के कारण ज्ञानज्योति सदा मत्त है, काम के वश है, (यहाँ आचार्य भगवन्त ने जगत की स्थिति का बयान किया है कि आप सब विषय - कषाय में रत हो और उपदेश भी दिया है कि आप उन विषय-कषाय में रतपना-वशपना छेदकर छोड़कर ज्ञानज्योति का अनुभव करो) और निज आत्मकार्य में मूढ़ है (अर्थात् संसार की समस्त होशियारी होने पर भी अपने आत्मा की प्राप्ति के लिये योग्य काल की राह देखता अर्थात् नियतिवादी बनकर बैठा रहता है और अपना पूर्ण पुरुषार्थ संसार के लिये प्रयोग करता है और निज आत्मकार्य में मूढ़ है अर्थात् पुरुषार्थहीन है)। मोह के अभाव से यह ज्ञानज्योति शुद्धभाव को पाता है (अर्थात् परमपारिणामिकभाव के अनुभव और सेवन से श्रेणी माँडकर मोह का अभाव करके ज्ञानज्योति अर्थात् सम्यग्दृष्टि आत्मा, केवलज्ञान-केवलदर्शनरूप शुद्धभाव को प्राप्त करता है) जिस शुद्धभाव ने दिशामण्डल को धवलि (अर्थात् उज्ज्वल) किया है (अर्थात् उससे तीन काल-तीन लोक सहज ज्ञात होते हैं) और सहज