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नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय
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(अर्थात् समयसार गाथा ६ अनुसार का भाव अर्थात् जो प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं ऐसा एक ज्ञायकभावरूप और दूसरा, यहाँ पुण्य और पाप, दोनों को घोर संसार का मूल कहा है, उसके विषय में हमने पूर्व में बतलाये अनुसार समझना अर्थात् दोनों आत्मा को बन्धनरूप होने से संसार से मुक्ति के लिये इच्छनीय नहीं है, तथापि किसी को ऐसा नहीं समझना कि पाप और पुण्य, ये दोनों हेय होने से अपने को पाप करने की छूट मिली है। ऐसा समझनेवाला वह नियम से अनन्त संसारी ही है परन्तु पाप का विचार भी नहीं करते, मात्र आत्मलक्ष्य से सुकृत करने योग्य है और वह शुभभाव भी शुद्धभाव से विरुद्ध भाव होने से, शुद्धभाव में मैंपना' करने से अथवा मात्र शुद्धभाव के लक्ष्य से भले आप नियम से शुभ में ही रहो परन्तु उस पर आदरभाव से नहीं। आदरभावमात्र शुद्धभाव पर ही और रहना भी है शुद्धभाव में ही, परन्तु यदि आप शुद्धभाव से स्खलित होओ अथवा शुद्धभाव की प्राप्ति न हुई हो तो शुद्धभाव के लक्ष्य से रहना, नियम से शुभ में ही। अशुभभाव की तो परछाई भी लेने योग्य नहीं है, इसलिए यहाँ किसी को छल ग्रहण करके शुभभाव छोड़कर अशुभ का आचरण नहीं करना। तीसरा यहाँ दृष्टि के विषयरूप शुद्धात्मा इष्ट है कि जिसमें सुकृत और दुष्कृतरूप विभावभाव को सदा आलोच-आलोचकर अर्थात् अत्यन्त गौण करके) मैं निरुपाधिक (स्वाभाविक) गुणवाले शुद्धात्मा को आत्मा से ही अवलम्बता हैं (अर्थात् शुद्धात्मा में ही रहने का प्रयत्न करता हूँ) पश्चात् (अर्थात् उससे ही) द्रव्यकर्मरूप समस्त प्रकृति को अत्यन्त नाश प्राप्त कराकर (अर्थात् घातिकर्म का नाश करके केवलज्ञान-केवलदर्शनरूप) सहज विलसती ज्ञान लक्ष्मी को मैं प्राप्त करूँगा।' अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव को भी ध्यान के विषयरूप शुद्धात्मा ही है।
श्लोक १५५- 'जिसने ज्ञानज्योति द्वारा (अर्थात् ज्ञानमात्र भाव के अवलम्बन से) पापतिमिर के पुंज का नाश किया है (अर्थात् उसका मैंपना' ज्ञानमात्रभाव=परमपारिणामिकभाव में ही होने से सर्व पापों के उदयरूप औदायिकभाव को अत्यन्त गौण किया है) और जो पुराण (सनातन अर्थात् त्रिकाली शुद्ध) है ऐसा आत्मा परम संयमियों के चित्त कमल में (भाव मन में) स्पष्ट है, वह आत्मा संसारी जीवों के वचन-मनोमार्ग से अतिक्रान्त है (वचन और मन से स्पष्ट कर सकने अथवा व्यक्त कर सकनेयोग्य नहीं है) यह निकट परमपुरुष में (अर्थात् इस निकट में ही मोक्ष प्राप्त करनेयोग्य पुरुष में) विधि क्या और निषेध क्या?'
अर्थात् ऐसे शुद्धात्मा में मग्न रहनेवाले परम पुरुष, कोई विधि अनुसरे अथवा न अनुसरे तो उन्हें उसमें कुछ भी दोष नहीं है इसलिए उनके लिए कोई विधि निषेध नहीं है ऐसा बतलाया है।
श्लोक १५६-'जो सकल इन्द्रियों के समूह से उत्पन्न होनेवाले कोलाहल से विमुक्त है