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दृष्टि का विषय
गाथा १०२ अन्वयार्थ-'ज्ञानदर्शनलक्षणवाला शाश्वत एक आत्मा मेरा है; शेष सब संयोगलक्षणवाले भाव मुझसे बाह्य हैं।'
ये गाथा भेदज्ञान की गाथा है, इसमें सम्यग्दर्शन के लिये भेदज्ञान किस प्रकार करना यह बतलाया है कि जो देखने-जाननेवाला आत्मा है, वह मैं' अन्य सर्व भाव (ज्ञेय) उसमें गौण करने के होने से ही वे भाव बाह्य कहे हैं, क्योंकि उनसे ही भेदज्ञान करना है।
श्लोक १४८-'तत्त्व में निष्णान्त बुद्धिवाले जीव के हृदयकमलरूप अभ्यन्तर में (भाव मन में) जो सुस्थित (भले प्रकार स्थिरता प्राप्त) है, वह सहज तत्त्व (परमपारिणामिकभावरूप सहज परिणामी शुद्ध आत्मा) जयवन्त है (वही सर्वस्व है)। उस सहज तेज ने मोहान्धकार का नाश किया है (अर्थात् दर्शनमोह का उपशम, क्षयोपशम, अथवा तो क्षय किया है) और वह (सहज तेज) (सम्यग्दर्शन का विषय) निज रस के फैलाव से प्रकाशित ज्ञान के प्रकाशमात्र है।'
श्लोक १४९- और जो (सहज तत्त्व-शुद्धात्मा) अखण्डित है (अर्थात् आत्मा में कोई भाग शुद्ध और कोई भाग अशुद्ध, ऐसा नहीं है, पूर्ण आत्मा-अखण्ड आत्मा ही द्रव्यदृष्टि से शुद्धात्मारूप ज्ञात होता है), शाश्वत है (अर्थात् तीनों काल ऐसा का ऐसा उपजता है=परिणमता है), सकल दोष से दूर है (अर्थात् सकल दोष से भेदज्ञान किया होने से वह शुद्धात्मा सकलदोष से दूर है), उत्कृष्ट है (अर्थात् सिद्धसदृशभाव है), भवसागर में डूबे हुए जीव समूह को (अर्थात् सर्व संसारी जीवों को) नौका समान है (अर्थात् मुक्ति का कारण है अर्थात् सम्यग्दर्शन का विषय है) और प्रबल संकटों के समूहरूपी दावानल को (अर्थात् किसी भी प्रकार के उपसर्गरूप संकटों में स्वयं शान्त रहने) के लिये जल समान है (अर्थात् शुद्धात्मा का अवलम्बन लेते ही संकट गौण हो जाते हैं, पर हो जाते हैं), उस सहज तत्त्व को मैं प्रमोद से सतत नमस्कार करता हूँ।' अर्थात् प्रमोद से सतत् भाता हूँ, उसका ही ध्यान करता हूँ।
गाथा १०७ अन्वयार्थ-'नोकर्म और कर्म से रहित (अर्थात् प्रथम, पुद्गल से भेदज्ञान किया, जो कि आत्मा से प्रगट भिन्न है) तथा विभावगुण पर्यायों से व्यतिरिक्त (अर्थात् दूसरा, आत्मा जो कर्मों के निमित्त से विभावभावरूप अर्थात् औदयिकभावरूप परिणमता है, उससे भेदज्ञान किया अर्थात् वे भाव होते तो है आत्मा में ही-मुझमें ही, परन्तु वे भाव मेरा स्वरूप नहीं होने से उनमें 'मैपना' नहीं करके अर्थात् उन्हें गौण करते ही उनसे रहित शुद्धात्मा प्राप्त होता है, ऐसे) आत्मा को (अर्थात् शुद्ध आत्मा को) जो ध्याता है उस श्रमण को (परम) आलोचना है।'
श्लोक १५२-'घोर संसार के मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृत को सदा आलोच-आलोचकर