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________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 109 औदयिक, उपशम और क्षयोपशमभाव को) कि जो वास्तव में पौद्गलिक विकार है उसे-वह ग्रहण ही नहीं करता (मैपना ही करता नहीं)।' श्लोक १३३-'जो मुक्ति साम्राज्य का मूल है (अर्थात् सम्यग्दर्शन का विषय है क्योंकि सम्यग्दर्शन वह मुक्ति साम्राज्य का मूल है) ऐसे इस निरूपम, सहज परमानन्दवाले चिद्रूप को (चैतन्य के स्वरूप को सामान्यज्ञानमात्र को) एक को चतुर पुरुषों को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करना योग्य है (अर्थात् एक सामान्य ज्ञानमात्र भाव कि जो सहज परिणमनयुक्त परमपारिणामिकभाव है, उसमें ही चतुर पुरुषों को 'मैंपना' करने योग्य है); इसलिए हे मित्र! तू भी मेरे उपदेश के सार को (अर्थात् यही सर्व जिनागमों का सार है अर्थात् समयसार का सार है अर्थात् समयसार को) सुनकर, तुरन्त ही उग्ररूप से इस चैतन्य-चमत्कार के प्रति अपनी वृत्ति कर।' __ अर्थात् तू भी उसे ही लक्ष्य में ले और उसमें ही 'मैंपना' कर कि जिससे तू भी आत्मज्ञानीरूप से परिणम जायेगा अर्थात् तुझे भी सम्यग्दर्शन प्रगट होगा अर्थात् यहाँ सम्यग्दर्शन की विधि बतलायी है। श्लोक १३५ - 'मेरे सहज सम्यग्दर्शन में, शुद्धज्ञान में, चारित्र में, सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्म द्वन्द्व के संन्यास काल में (अर्थात् समयसार गाथा ६ अनुसार का भाव अर्थात् जो प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं, ऐसा एक ज्ञायकभावरूप) संवर में और शुद्धयोग में (शुद्धोपयोग में) वह परमात्मा ही है (अर्थात् सम्यग्दर्शनादि सबका आश्रय-अवलम्बन शुद्धात्मा ही है कि जो सिद्धसम ही भाव है); मुक्ति की प्राप्ति के लिये जगत में दूसरा कोई भी पदार्थ नहीं है, नहीं है।' अर्थात् दृष्टि के विषय की ही दृढ़ता करायी है। श्लोक १३६-'जो कभी निर्मल दिखायी देता है कभी निर्मल तथा अनिर्मल दिखायी देता है तथा कभी अनिर्मल दिखायी देता है अर्थात् शुद्धनय (द्रव्यदृष्टि) से निर्मल ज्ञात होता है, प्रमाणदृष्टि से निर्मल तथा अनिर्मल दिखायी देता है और अशुद्धनय (पर्यायदृष्टि) से अनिर्मल दिखायी देता है और इस कारण से अज्ञानी के लिये जो गहन है (इसलिए ही बहुत लोग आत्मा को एकान्त शद्ध अथवा अशद्ध धार लेते हैं और दसरे लोग आत्मा को एक भाग शुद्ध और एक भाग अशुद्ध, ऐसी धारणा कर लेते हैं), वही - कि जिसने निजज्ञानरूपी दीपक से पाप तिमिर को नष्ट किया है वही (अर्थात् जिसने प्रज्ञाछैनी अर्थात् तीक्ष्णबुद्धि से सर्व विभावभावों को गौण करके जो परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा ग्रहण किया है अर्थात् उसमें ही मैंपना' किया है और ऐसा करते ही सम्यग्दर्शनरूप दीप प्रगटाकर पाप तिमिर को नष्ट किया है, वही शुद्धात्मा) सत्पुरुषों के (ज्ञानी के) हृदयकमलरूपी घर में (मन में) निश्चयरूप से संस्थित है (भले प्रकार स्थिरता प्राप्त है)।'
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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