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दृष्टि का विषय
२५ शुभोपयोग निर्जरा का कारण नहीं
पंचाध्यायी उत्तरार्ध की गाथागाथा ७६२ अन्वयार्थ-'बुद्धि की मन्दता से ऐसी भी आशंका नहीं करना कि शुभोपयोग, एकदेश से भी निर्जरा का कारण होता है क्योंकि शुभ उपयोग, अशुभ को लानेवाला होने से (अर्थात् जो शुभ उपयोग में धर्म समझते हैं और शुभ उपयोग से भी निर्जरा मानते हैं ऐसा एक वर्ग जैन समाज में हैं, उन्हें यहाँ समझाया है कि स्वात्मानुभूतिरूप निश्चय सम्यग्दर्शन के बिना शुभ उपयोग नियम से आत्मा में अल्प शुभ के साथ-साथ मोहनीयादि घातिकर्मों का आस्रव भी कराता है
और वह मोहनीयादि घातिकर्म नियम से जीव को दु:ख के करनेवाले हैं, अर्थात् अशुभ को लानेवाले हैं अर्थात् शुभ उपयोग जीव को संसार से मुक्त नहीं कराता ऐसा समझाना है। परन्तु यहाँ शुभ उपयोग का निषेध नहीं समझना, नहीं तो लोग स्वच्छन्द से अशुभ ही आचरण करेंगे; यहाँ उद्देश्य शुभ छुड़ाकर अशुभ में ले जाने का नहीं परन्तु निर्जरा मात्र शुद्ध उपयोग से ही होती है ऐसा बतलाना है और इसीलिए बतलाया है कि शुभ उपयोग) वह निर्जरा का हेतु नहीं हो सकता तथा न तो वह शुभ भी कहा जा सकता है।'
इसलिए शुभ उपयोग से निर्जरा नहीं समझना और इस गाथा से शुभ का निषेध भी नहीं समझना अर्थात् शुभ उपयोग वह शुद्ध उपयोग का (निर्जरा का) कारण नहीं परन्तु वह शुभ उपयोग शुभभावों का (अर्थात् वीतराग देव-गुरु-शास्त्र के संयोग का) कारण अवश्य है, इसलिए मात्रमात्र आत्मा के लक्ष्य से अर्थात् आत्मा की प्राप्ति के लिये (सम्यग्दर्शन के लिये) जो योग्यतारूप शुभ उपयोग है, वह अपेक्षा से आचरने योग्य है, क्योंकि जीव को अशुभ उपयोग में रहने का उपदेश तो कोई भी शास्त्र देते नहीं और इसीलिए पुण्य (शुभ) को हेय समझकर स्वच्छन्द से कोई अशुभ उपयोगरूप परिणमता हो तो वह अपने अनन्त संसार को बढ़ाने का ही उपाय कर रहा है ऐसा समझना।
यहाँ शुभ उपयोग को निर्जरा का कारण माना नहीं है, क्योंकि गुणश्रेणी निर्जरा का एकमात्र कारण शुद्धोपयोग ही है, इस अपेक्षा से शुभ उपयोग (पुण्य) हेय है परन्तु कोई स्वच्छन्द से अन्यथा समझकर यदि पुण्य को हेय कहकर पापरूप परिणमेगा तो ऐसा तो किसी भी आचार्य भगवन्तों का उपदेश ही नहीं है और ऐसी अपेक्षा भी नहीं है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लोक १४८ में भी