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शुभोपयोग निर्जरा का कारण नहीं
बतलाया है कि 'पाप जीव का शत्रु है और धर्म जीव का मित्र है, ऐसा निश्चय करता हुआ श्रावक यदि शास्त्र को जानता है, तो वह निश्चय से श्रेष्ठ ज्ञाता अथवा कल्याण का ज्ञाता होता है।' और आत्मानुशासन गाथा ८ में भी बतलाया है कि 'पाप से दुःख और धर्म से सुख यह बात लौकिक में भी जगत प्रसिद्ध है और सर्व समझदार मनुष्य भी ऐसा ही मानते हैं तो जो सुख के अर्थी हों, उन्हें पाप छोड़कर निरन्तर धर्म अंगीकार करना । '
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इसलिए नियम से मात्र - मात्र आत्मलक्ष्य से शुभ में ही रहना योग्य है ऐसा हमारा अभिप्राय है जैसा कि इष्टोपदेश गाथा ३ में कहा है कि 'व्रतों द्वारा देवपद प्राप्त करना अच्छा है परन्तु अरे! अव्रतों द्वारा नरकपद प्राप्त करना अच्छा नहीं। जैसे छाया और धूप में बैठकर राह देखनेवाले दोनों (पुरुषों) में बड़ा अन्तर है, वैसे ( व्रत और अव्रत का आचरण करनेवाले दोनों पुरुषों में बड़ा अन्तर है)।'
आगे आत्मानुशासन गाथा २३९ की टीका में भी पण्डित श्री टोडरमलजी बतलाते हैं कि ‘निश्चयदृष्टि से देखने पर एक शुद्धोपयोग ही उपादेय है। शुभाशुभ सर्व विकल्प त्याज्य है तथापि ऐसी तथारूप दशा सम्पन्नता प्राप्त न हो तब तक उसी दशा की (शुद्धोपयोगरूप दशा की ) प्राप्ति के लक्ष्यपूर्वक प्रशस्तयोग (शुभ उपयोगरूप) प्रवृत्ति उपादेय है अर्थात् शुभ वचन, शुभ अन्तःकरण, और शुभकाया परिस्थिति आदरणीय है-प्रशंसनीय है परन्तु मोक्षमार्ग का साक्षात् कारण नहीं तथापि शुद्धोपयोग के प्रति वृत्ति का प्रवाह कुछ अंश में लक्षित हुआ है, ऐसे लक्ष्यवान जीवों को परम्परा से कारणरूप होता है।' और आत्मानुशासन गाथा २४० में भी बतलाया है कि 'प्रथम अशुभोपयोग छूटे तो उसके अभाव से पाप और तज्जनित प्रतिकूल व्याकुलतारूप दुःख स्वयं दूर होता है और अनुक्रम से शुभ के भी छूटने से पुण्य, तथा तज्जनित अनुकूल व्याकुलता - जिसे संसार परिणामी जीव सुख कहते हैं, उसका भी अभाव होता है...' इसलिए कोई स्वच्छन्दता से अशुभ उपयोगरूप न परिणमे ऐसी हमारी प्रार्थना है क्योंकि ऐसा करने से तो आपके भव का भी ठिकाना नहीं रहेगा, जो बात अत्यन्त करुणा उपजाने योग्य है।