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________________ दृष्टि का विषय तीन काल और तीन लोक में सम्यक्त्व के समान धर्म ई नहीं; जगत में वह जीव परमहितकर है। * सम्यक्त्व के अतिरिक्त दूसरा जीव का कोई मित्र नहीं है, दूसरा कोई धर्म नहीं है, दूसरा कोई सार नहीं है, दूसरा कोई हित नहीं है, दूसरा कोई पिता-माता आदि स्वजन नहीं और दूसरा कोई सुख नहीं। मित्रधर्म-सार-हित-स्वजन-सुख, यह सब सम्यक्त्व में समाहित है। * सम्यक्त्व से अलंकृत देह भी देवों द्वारा पूज्य है परन्तु सम्यक्त्वरहित त्यागी भी पद-पद पर निन्दनीय है। * एक बार सम्यक्त्व को अन्तर्मुहर्तमात्र भी ग्रहण करके, कदाचित् जीव उसे छोड़ भी दे तो भी निश्चित् वह अल्प काल में (पुनः सम्यक्त्वादि ग्रहण करके) मुक्ति प्राप्त करेगा। * जिस भव्य को सम्यक्त्व है, उसके हाथ में चिन्तामणि है, उसके घर में कल्पवृक्ष और कामधेनु है। * जावे जीव, हिंसा छोड़कर, वन में जाकर अकेला बसता है और सर्दी-गर्मी सहन करता है परन्तु यदि सम्यग्दर्शनरहित है तो वन के वृक्ष जैसा है। * सम्यक्त्व के बल से जो कर्म सहज में नष्ट होते हैं, वे कर्म सम्यक्त्व के बिना घोर तप से भी नष्ट नहीं होते। * मुनि के व्रतसहित, सर्वसंगरहित, देवों से पूज्य ऐसा निर्ग्रन्थ जिनरूप भी सम्यग्दर्शन के बिना शोभा नहीं देता। (वह तो प्राणरहित सुन्दर शरीर जैसा है)। * जैसे प्राणरहित शरीर को मृतक कहा जाता है; उसी प्रकार दृष्टिहीन जीव को चलता मृतक कहा जाता है। * अधिक क्या कहना? जगत में जितने सुख हैं, वे सब सर्वोत्कृष्टरूप से सम्यग्दृष्टि को प्राप्त होते हैं। * एतत् समयसर्वस्वम् एतत् सिद्धान्तजीवितम्। एतत् मोक्षगते: बीजं सम्यक्त्वं विद्धि तत्त्वतः।। विधिपूर्वक उपासित किया गया यह सम्यक्त्व, वह समय का सर्वस्व है-सर्व शास्त्रों का सार है, वह सिद्धान्त का जीवन है-प्राण है और वही मोक्षगति का बीज है। सम्यक्त्व है वह सार है, है समय का सर्वस्व वह। सिद्धान्त का जीवन वही और मोक्ष का है बीज वह। विधि जानकर बहुमान से आराधना सम्यक्त्व को। सर्व सौख्य ऐसे पाओगे आश्चर्य होगा जगत को।। *अहो! यह सम्यग्दर्शन है, वह मोक्षफल देनेवाला सच्चा कल्पवृक्ष है। जिनवर-वचन की श्रद्धा
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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