________________
प्रस्तावना
उसका मूल है; तत्त्वश्रद्धा उसकी शाखा है। समस्त गुण की उज्ज्वलता रूप जल सिंचन द्वारा जो वर्धमान है, चारित्र जिसकी शाखायें हैं; सर्व समिति, वे उसके पत्र-पुष्प हैं और मोक्षसुखरूपी फल द्वारा जो फल-फूल रहा है-ऐसा सम्यग्दर्शन सर्वोत्तम कल्पवृक्ष है। अहो जीवों! उसका सेवन करो। (उसकी मधुर छाया लेनेवाला भी महाभाग्यवान है)।
(श्री प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, सर्ग-११ की चयनित गाथायें) जिनागम में सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट को ही भ्रष्ट माना गया है एवं उसे मुक्ति के लिये अयोग्य कहा गया है। आचार्य कुन्दकुन्द का यह कथन इस सम्बन्ध में अनुप्रेक्षणीय है
दसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं।..... अर्थात् जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं; जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता।....
(अष्टपाहुड-दर्शनपाहुड, गाथा-४) सम्यग्दृष्टि जीव का दुर्गति गमन नहीं होता तथा अशुभभाव के काल में आगामी भव सम्बन्धी आयु का बन्ध नहीं होता यह भी सम्यक्त्व का आश्चर्यकारी प्रभाव जानना चाहिए।
(योगसार, ८८; छहढाला, तीसरी ढाल; धवला आदि) सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए ऐसे धर्मात्मा को देवों द्वारा प्रशंसनीय/पूजनीय बतलानेवाले कथन भी जिनागम में उपलब्ध होते हैं।
(छहढाला, रत्नकरण्ड श्रावकाचार) ___ इस प्रकार सम्पूर्ण जिनागम में मिथ्यात्व की भयंकरता और सम्यग्दर्शन की उत्कृष्टता के अनेकों प्रमाण मौजूद हैं, जिन्हें यहाँ विस्तार भय से नहीं दिया जा रहा है। जिज्ञासु पाठकों को इस सम्बन्ध में आत्महित के लक्ष्य से जिनागम का गम्भीरतापूर्वक अध्ययन करने का विनम्र अनुरोध है।
ज्ञानी धर्मात्माओं की इसी परम्परा में वर्तमान शताब्दी में आध्यात्मिक सन्त पूज्य गुरुदेवश्री कानजीस्वामी के पैंतालीस वर्षों तक इस विषय पर अनवरत प्रवचनधारा बहाकर यह विषय अत्यन्त चर्चित कर दिया है।
पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा उद्घाटित वीतरागी सन्तों के हार्द को समझकर कई जीव आत्महित के सुखदमार्ग को प्राप्त हुए, तो कई जीव उस मार्ग को प्राप्त करने हेतु प्रयासरत भी हो रहे हैं, किन्तु उनके व्याख्यानों एवं प्रतिपादन की अपेक्षाओं को सर्वांगीणरूप से न समझ पाने के कारण एवं अपने दुराग्रहों को सुरक्षित रखने के व्यामोह से अनेक लोग उनके वचनों को तोड़-मरोड़कर अथवा आधे-अधूरे प्रस्तुत कर अपने अज्ञान की सुरक्षा के लिये कवच की तरह प्रयोग कर रहे हैं। यह भी एक विडम्बना ही है कि जो मार्ग आत्महित का पथप्रदर्शक है, उसी को अज्ञानी अपने अज्ञान की पुष्टि में निमित्त बना लेता है।
जैसे कि - द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप वस्तु में सम्यग्दर्शन के प्रयोजन से पर्याय को गौण करके त्रिकाली द्रव्यस्वभाव में मैपना कराया जाता है, वहाँ द्रव्य और पर्याय को दो भिन्न पदार्थों की तरह समझ लेना पदार्थ विपर्यास है एवं द्रव्यपर्यायस्वरूप भेदाभेदात्मक अथवा नित्य-अनित्यात्मक वस्तु में मैंपना भी स्पष्टरूप से मिथ्यादर्शन है। तात्पर्य यह है कि प्रमाण के द्वारा गृहीत नित्य-अनित्यात्मक अथवा भेदाभेदात्मक वस्तु में