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को लेकर विस्तार से वर्णन है। आचार्य कुन्द- कुन्द के कसाय पाहुड़ में इसकी चर्चा नहीं है किन्तु उनकी अन्य कृतियों- नियमसार और समयसार में मग्गणाठाण, गुणठाण व जीवठाण शब्दों का विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया गया है। यथा - जीवस्थान = जीवों के जन्म ग्रहण करने की योनियां हैं। ये आगे जाकर गुणस्थान व जीवठाण दोनों प्रथक स्वरूप में विकसित हुए । गुणस्थान = यह जीव पर्याय के गुण तथा उसका कर्म सम्बन्ध आदि के अध्ययन की विशिष्ट विषय-वस्तु बनने लगा।
आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट किया है कि आवश्यकनियुक्ति की गाथाएं उसकी मूल गाथा नहीं है वे संग्रहणी से लेकर प्रक्षेपित की गई है। लगभग पाँचवी शताब्दी के अंत तक गुणस्थान का स्वरूप स्पष्ट हो गया था। इसमें कर्मबंध, उदय, उदीरणा की गणना (नियम सिद्धान्त) भी स्पष्ट किए गये। समवायांग में मार्गणाओं की विस्तार से चर्चा हुई है। उमास्वामि कृत तत्त्वार्थसूत्र में कर्म निर्जरा की 10 अवस्थाओं व बन्ध के स्वरूप आदि की तत्त्व-जनित चर्चा हुई जिसके चलते गुणस्थान कर्म विशुद्धि विश्लेषण के चरम तक पहुँचा। जीवसमास - गुणस्थानक विषयवस्तुजीवसमास के ग्रंथकार कौन थे यह तो स्पष्ट नहीं है। इसका ज्ञान 8वीं सदी के आचार हरिभद्र को भी नहीं था। नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र (5वीं सदी की रचना) में आगम-ग्रंथों का उल्लेख है किन्तु जीवसमास का नहीं फिर भी इसकी विषयवस्तु के आधार पर इसे पूर्व साहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ अवश्य माना जा सकता है। जीवसमास अर्थात जीवों की विभिन्न अवस्थाएं। जिन सात नयों की चर्चा पू. उमास्वामीजी ने तत्वार्थ-सूत्र (जिसे छठी सदी की रचना माना जाता है ) में की है वे मूल में पाँच हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द। गुणस्थान के समानार्थी जीवसमास नामक ग्रंथ में इन्हीं पाँच नयों की अवधारणा को उल्लखित किया गया है। इस दृष्टि से जीवसमास का रचना काल 5वीं से छठी सदी के मध्य का माना जा सकता है। ज्ञातव्य है कि जीवसमास के ही प्रमुख घटकों को गुणस्थान के रूप में प्रस्तुत किया गया।
तत्त्वार्थसूत्र और गुणस्थान जैन दर्शन में उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र को कर्म विशुद्धि का विवेचन करने वाला एक प्रमुख ग्रंथ माना जाता है। गुणस्थान सिद्धान्त की भाँति इसमें भी कर्मों के क्षय और उपशम की बात की गई है फिर भी कुछ भिन्नताएं दिखती हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कर्म विशुद्धि की 10 अवस्थाएं मानी गई हैं जिनमें से प्रथम पाँच का सम्बन्ध दर्शनमोह तथा अंतिम पाँच का सम्बन्ध चारित्रमोह से है। तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्याय को ध्यान में रखते हुए यदि
थान का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि आध्यात्मिक विकास का यह क्रम प्रथम