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सम्यक्दृष्टि की अपेक्षा से काफी मेल खाता है। इसे प्रवाहक्रम में निम्नवत रूप से भी समझा जा सकता है - श्रावक और विरत के रूप में विकास - दर्शनमोह का उपशम- चौथी अवस्था में अनन्तानुबंधी कषायों का क्षपण- पाँचवीं अवस्था में दर्शनमोह का क्षय- छठवीं अवस्था में चारित्रमोह का उपशम- सातवीं अवस्था में चारित्रमोह का उपशान्त होना- आठवीं अवस्था में उपशान्त चारित्रमोह का क्षपण (क्षपक)- नौवीं अवस्था में चारित्र मोह क्षीण (क्षीण मोह) होना- दसवीं अवस्था में जिन की प्राप्ति। तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित नैतिक विकास की यात्रा नियतक्रम में जीव के आरोहण प्रवाह को स्पष्ट करती है। इसमें कहीं से भी जीव के पतनोन्मुख होने का विधान नहीं मिलता। गुणस्थान में यह स्थिति चतुर्थ गुणस्थान से शुरू होकर आगे बढ़ती है। जहाँ उमास्वामिजी ने इस ग्रंथ में यह माना है कि उपशम- उपशान्त- क्षपण व क्षय कर्म विशुद्ध का साधन है वहीं इसका खण्डन गुणस्थान सिद्धान्त में देखने को मिलता है यथा- दसवें गुणस्थान में जीव यदि नियत कर्मों का उपशम करता है तो ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है जो कि इस यात्रा में पतनोन्मुख होने का अंतिम सोपान है। और यदि वह दसवें गुणस्थान में उपशम की जगह उन कर्मों का क्षय करता है तो क्षीण मोह नामक 12वें गुणस्थान में आरोहण कर लेता है जहाँ पर अथवा जहाँ से आगे पतन की सम्भावनाएं समाप्त हो जाती है और सिद्धात्म की प्राप्ति निश्चित हो जाती है। तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित आध्यात्मिक विकास की जो ध्यानादि स्थितियां उल्लखित हैं उनकी भी तलना गणस्थान से की जा सकती है। कर्म निर्जरा के प्रसंग की 10 स्थितियाँ - सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्त वियोजक, दर्शन मोह क्षपक (चारित्र मोह) उपशमक, उपशान्त (चारित्र) मोह, क्षपक और क्षीण मोह। यदि अनन्त वियोजक को अप्रमत्तसंयत, दर्शनमोहक्षपक को अपूर्वकरण, उपशमक (चारित्र मोह) को अनिवृत्तिकरण और क्षपक को सूक्ष्म सम्पराय मानें तो गुणस्थान के साथ इनकी तुलना की जा सकती है। क्षपक श्रेणी को ध्यान में रखते हए यह कहा जा सकता है कि दर्शनमोहक्षपक की स्थिति अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान जैसी है किन्तु समस्या यहाँ उत्पन्न होती है कि आठवें गुणस्थान से क्षपक श्रेणी आरम्भ होती है जबकि तत्त्वार्थसूत्र में यहाँ दर्शनमोह का पूर्ण क्षय मान लिया गया है। गुणस्थानों में क्षीणमोह 12वाँ गुणस्थान है। तत्त्वार्थसूत्र के रचियता उमास्वामि संभवत: दर्शनमोह व चारित्रमोह दोनों में पहले उपशम फिर क्षय मानते हैं। आचार्य कुन्द- कुन्द रचित कसाय पाहुड़ आदि को प्रथम सदी के आसपास का मान लिया जाय तो षट्खण्डागम (जिसमें गुणस्थान का व्यवस्थित वर्णन है) को चौथी-पाँचवीं सदी का ग्रंथ माना जा सकता है। इससे पूर्ववर्ती ग्रंथों में गणस्थान का उल्लेख नहीं मिलता है यद्यपि उसके तत्त्व चिंतन सम्बन्धी अंश यथा - तथा अवश्य उपलब्ध हैं। किन्तु इसके पश्चात् की रचनाओं पर गुणस्थान का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जाता है। कसाय पाहुड़ के समान तत्त्वार्थसूत्र में भी गुणस्थान नाम का शब्द नहीं मिलता है। कसाय पाहुड़ में उपलब्ध गुणस्थान से सम्बन्धित शब्द