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________________ मिथ्यादृष्टि, सम्यग मिथ्यादृष्टि (मिश्र), अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत /विरता-विरत (संयमासंयम) , विरतसंयत उपशान्त कषाय एवं क्षीण मोह की तुलना में तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्-मिथ्यादृष्टि की धारणा नहीं है किन्तु 'अनन्तवियोजक नाम की अवधारणा है जिसका कसाय पाहुड में अभाव है। कसाय पाहुइ व तत्त्वार्थसूत्र दोनों में प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये चार समानरूप से अनुपस्थित हैं किन्तु उपशान्तमोह और क्षीणमोह के मध्य की स्थिति खवग या क्षपक का वर्णन है जो गुणस्थान अभिगम में दृष्टिगत नहीं होती। कसाय पाहुड़ और तत्त्वार्थसूत्र दोनों में वर्णित कर्म विशुद्धि की अवस्थाओं में बहुत कुछ समानता है जो उसके समकालीन होने का दावा पुष्ट करती है। तत्वार्थसूत्र शैली पर बौद्ध परम्परा व योग दर्शन व्यवस्थाओं का भी प्रभाव हो सकता है। बौद्ध दर्शन में आध्यात्मिक विकास की 4 भूमियां, योगवशिष्ठ की 7 स्थितियों की तरह उमास्वामिकृत तत्वार्थसूत्र में आत्मशुद्धि की 10 विधि, चतुर्विधि व सप्तविधि को आधार बनाया गया है। श्वेताम्बर साहित्य और गुणस्थान - दिगम्बर आम्नाय के कसाय पाहुड़ की तरह श्वेताम्बर आगम का मान्य ग्रंथ आलोडन है किन्तु गुणस्थान की वर्णित अवस्थाओं का उल्लेख इसमें प्राप्त नहीं होता है। नियुक्तियों में आचारांग नियुक्ति के चतुर्थ अध्याय समयक्त्व पराक्रम में निम्न 10 अवस्थाओं का उल्लेख सम्मत्तुपत्ती सावए य विरए अणंत कम्मसे। दसणमोहक्खवए उवसामंते य उवसंते ।।22।। खवए य खीण मोहे , जिणे अ सेढी भवे असंखिज्जा। तव्विवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए।।23।। __-आचारांग नियुक्ति(नियुक्ति संग्रह पृ-441) 1. सम्यक्त्वोत्पत्ति 2. श्रावक 3. विरत 4. अनन्त वियोजक 5. दर्शनमोह क्षपक 6. उपशमक 7. उपशान्त 8. क्षपक 9. क्षीण मोह और 10. जिन। उपरोक्त गाथा नियुक्तिकार की मूलगाथा न होकर कर्म सिद्धान्त ग्रंथ से अवतरित लगती है। इसमें गुणस्थान में वर्णित तीन अवस्थाओं - मिथ्यादृष्टि, सासादन एवं मिश्र का अभाव है। श्रावक व विरत की तुलना पाँचवें देशव्रत एवं छठवें प्रमत्त संयत गुणस्थान से की जा सकती है। दर्शनमोहक्षपक की तुलना आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से नहीं की जा सकती जबकि कषाय उपशम और उपशान्त कषाय अवस्थाओं की 10वें और 11वें गुणस्थान से तुलना की जा सकती है । क्षपक अवधारणा गुणस्थान नहीं है जबकि क्षीण मोह 12वें गुणस्थान के साथ तुलनीय है। जिन सयोग केवली जैसी अवस्था है। अयोग केवली को लेकर इसमें कोई प्रथक उल्लेख नहीं है। इनका विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि आचारांग नियुक्ति में वर्णित ये दस अवस्थाएं भले ही समान रूप से पल्लवित न हुई हो किन्तु बीज रूप में अवश्य उपस्थित हैं।
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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