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नियर्तियों की प्राचीनतामाना जाता है कि नियुक्तियाँ भद्रबाहु द्वितीय (वराह मिहिर के भाई) की रचना है तो इनका काल पाँचवीं सदी हैं तो इसमें वर्णित दस अवस्थाएँ इससे पूर्व तत्त्वार्थसूत्र (उमास्वामि रचित) में वर्णित रही होंगी क्योंकि उनका कार्यकाल दूसरी से तीसरी सदी है। यदि इसे भद्रबाहु प्रथम की रचना मानें तो वे नियुक्त के रचनाकार भद्रबाहु को (स्वयं को) प्रणाम नहीं कर सकते जैसा कि वे करतें हैं। दूसरे उनकी नियुक्तियों में वि.नं.सं. 184 में इस समय तक होने वाले 7 निहन्वों और आर्यरक्षित (वि.नि.सं.584) का भी उल्लेख है। इन दोनों का एक साथ होना एवं प्रथम भद्रबाहु के साथ संगति युक्तियुक्त नहीं लगती क्योंकि उनका स्वर्गवास वि.नि.सं.170 अर्थात तृतीय सदी में हो जाता है तब वे वि.नि. 584 में होने वाले निहन्वों एवं आर्यरक्षितों का उल्लेख कैसे कर सकते हैं? यदि इसे भद्रबाह द्वितीय की रचना माना जाय तो प्रश्न यह उठता है कि बोटिक निहन्व और गुणस्थान अवधारणा का अन्तर्भाव इन नियुक्तियों में क्यों नहीं है? इनका अभाव यह दर्शाता है कि ये द्वितीय सदी के पूर्व की रचना है।
कल्पसूत्र में आर्यकृष्ण व आर्यशिवभूति के मध्य सचेलता व अचेलता को लेकर हुए विवाद का प्रसंग मिलता है जिसके परिणाम स्वरूप बेटिक सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई थी। इनके समकालिक एक आर्यभद्र हुए हैं जो आर्य शिवभूति के शिष्य तथा आर्य नक्षत्र व आर्य रक्षित से ज्येष्ठ थे। इनका काल द्वितीय-तृतीय सदी रहा है। अतः नियुक्तियां आर्यभद्र की रचना लगती हैं आगे चलकर नाम साम्य और भद्रबाह की प्रसिद्धि के कारण इनकी रचनाएं मानी जाने लगी हों किन्तु वस्तुतः इन नियुक्तियों को द्वितीय सदी के प्रथमचरण की रचना मानना अनुचित नहीं है।
___ आवश्यक नियुक्ति की जिस गाथा में 14 गुणस्थानों के समक्ष 14 भूतगामों का उल्लेख मिलता है उन्हें हरिभद्र की आठवीं शताब्दी की टीका में मूल नियुक्ति की रचना न मानकर किसी संग्रहणी गाथा से लिया हुआ माना जाता है।
इससे स्पष्ट होता है कि नियुक्ति साहित्य में 14 गुणस्थान अनुपस्थित है। तत्त्वार्थसूत्र की भाँति इसमें भी 10 स्थितियों का ही उल्लेख है। आचारांग नियुक्ति को रचनाकार ने कर्म सिद्धान्त साहित्य के किसी ग्रंथ से लिया है ठीक उसी प्रकार जैसे षट्खण्डागम के वेदना-खण्ड से अवतरित गुणस्थान सम्बन्धी गाथाएं आगे चलकर धवलासार व गौम्मटसार में भी रखी गई। शिवशर्म सूरि की कर्म प्रकृति तत्पश्चात् चन्दर्षिकृत पंचसंग्रह (आठवीं सदी पूर्व) के बन्ध द्वार के उदय निरूपण में ग्यारह स्थितियों का उल्लेख हुआ है इसका तार्किक आधार यह कहा जा सकता है कि पूर्व में वर्णित 10 स्थितियों की संख्या यहाँ ग्यारह होने का कारण दसवीं अवस्था 'जिन' का सयोगी- अयोगी दो भागों में विभाजन होना
है। यथा
“संमत्त- देस- संपुन्न- विरइ-उप्पत्ति-अण-विणसंजोगे। दंसणखवणे मोहस्स समणे उवसंत खवगे य।। 4||
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