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खीणाइतगे अस्संखगुणियगुणसेढिदलिय जहकमसो। सम्मत्ताईणेक्कारसह कालो उ संखसे ।। 5 ।।
- पंचसंग्रह बंधवार, उदयनिरूपण देशविरत, सर्व विरत, अनन्तानुबन्धी विसंयोजक, दर्शनमोहक्षपक, उपशान्त(कषायशमक), क्षपक एवं क्षीणत्रिक अर्थात् क्षीणमोह, सयोग केवली और अयोग केवली ये गुणस्थानक स्थितियां यहाँ से फलित की जा सकती हैं।
आचार्य देवेन्द्र सूरि विरचित अर्वाचीन कर्म ग्रंथों में शतक नामक पंचम कर्म ग्रंथ की 82वीं गाथा में भी स्पष्टता की गई है -
सम्मदरससव्वविरई उ अणविसंजोय दंसखवगेय ।
सम्यक्त्व,
मोहसमसंत खवगे खीणसजोगियर गुणसेढी । ।
सम्म(सम्यक्त्व), दर(देशव्रती), अणविसंजोय ( अनन्त वियोजक), सखवगे (दर्शनमोहक्षपक), शम, उपशान्त(केवलसंत), खीण (क्षीणमोह) तथा (जिन के स्थान पर) सजोगी और इतर अवस्थाएं इस गाथा से फलित होती है जिससे गुणस्थान श्रेणियों की निकटता प्रकट होती है। श्वेताम्बर साहित्य की दृष्टि से इन्हें बीज रूप माना जा सकता है। इनका उल्लेख कर्म ग्रंथों में दूसरी से 13वीं सदी तक किसी न किसी रूप में मिलता है।
दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज -
दिगम्बर साहित्य के प्राचीन ग्रंथों गुणस्थान सिद्धान्त का 'मूल' खोजने का प्रयासबद्ध विश्लेषण निम्नवत् रूप से किया जा सकता है।
A- कार्तिकेयानुप्रेक्षा
जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में सात तत्त्वों को आधार बनाकर आत्मा के विकास क्रम की चर्चा की गई है उसी प्रकार इस कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जैन तत्त्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा, सृष्टि स्वरूप, मुनि आचार और श्रावकाचार के मद्देनजर बारह भावना या अनुप्रेक्षाओं (अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म) का वर्णन किया गया है। इसमें निर्जरा अनुप्रेक्षा के अन्तर्गत कर्म - निर्जरा के आधार पर जिन बारह अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है उनमें से यदि कुछ के नामान्तर को छोड़ दिया जाय तो गुणस्थान में वर्णित स्थानों से काफी समानता प्रतीत होती है। यथा
मिथ्यात्वी, सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती, महाव्रती, प्रथम कषाय - चतुष्क वियोजक, क्षपक शील, दर्शन मोहत्रिक (क्षीण), कषाय चतुष्क उपशमक, क्षपक, क्षीण मोह, सयोगीनाथ और अयोगीनाथ | नाम की भिन्नता के बावजूद आध्यात्मिक विकास यात्रा का नियतक्रम इनमें सन्निहित है। उपर्युक्त में उपशान्त मोह नाम की अवस्था का उल्लेख नहीं है जिसका निर्देश आचारांग निर्युक्ति एवं तत्त्वार्थ सूत्र में किया गया है । इस ग्रंथ मे 14 गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख न होने के कारण इसे कसायपाहुड़ का समकालिक एवं षट्खण्डागम का पूर्ववर्ती माना जा सकता है। इस ग्रंथ के टीकाकार शुभचन्द्रजी ने उपशान्तकषाय अवस्था का उल्लेख किया है जो कि मूल ग्रंथ में नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यात्व की गणना करके मात्र 11 अवस्थाओं को
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