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वर्णित किया है। इन 11 अवस्थाओं की अपेक्षा से इस ग्रंथ का काल चौथी सदी का उत्तरार्ध एवं पाँचवीं सदी का पूर्वार्द्ध माना जा सकता है। भाषाकीय प्राचीनता भी इस तथ्य की पुष्टि में सहायक है। बारह अनुप्रेक्षाओं का स्वतंत्र वर्णन करने वाले दो अन्य ग्रंथ हैं
1. कुमारस्वामी कृत बारस्साणुवेक्खा अपरनाम कार्तिकेयानुप्रेक्षा तथा 2. आचार्य कुन्द कुन्द कृत बारस्साणुवेक्खा ।
प्रो० ए० एन० उपाध्ये का मत है कि भाषा, शैली और प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से ये रचनाएं प्रवचनसार के काल के निकट प्रतीत होती हैं एवं इनकी प्राचीनता सिद्ध करती हैं। कुन्द कुन्द के नाम से प्रचलित द्वादशानुप्रेक्षा उनकी स्वयं की रचना है कि नहीं इस पर प्रश्न चिन्ह है कारण, इस ग्रंथ के अंत में मनिनाथ कन्द कन्द ने कहा है लिखा है। विचारणीय है कि आचार्य कुन्द कुन्द अपनी रचना में स्वयं को कैसे मुनिनाथ कह सकते है ? संभवतः यह उनके साक्षात् शिष्य की रचना रही हो।
___पं. जुगल किशोर मुख्तार कर्तिकेयानुप्रेक्षा के रचियता कुमार स्वामी को उमास्वाति (तत्त्वार्थसूत्र के रचियता) के बाद स्थापित करते हैं। यदि इन कुमार स्वामी की तुलना हल्सी के ताम्र पत्र में उल्लखित यापनीय संघ के कुमारदत्त से की जाय तो उनका काल पाँचवीं सदी का है। प्रो. मधुसूदन ढाकी एवं ए. एन. उपाध्ये उन्हें सातवीं सदी का मानने के पीछे तर्क देते हैं कि एकान्तिक मान्यताओं का खण्डन और सर्वज्ञता की तार्किक सिद्धि की अवधारणाएं पाँचवीं सदी में अस्तित्व में थीं। कुछ टीकाकार कुमारनन्दी को कुन्द-कुन्द का गुरु मानते हैं। यदि कुमारनन्दी कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक कुमार स्वामी ही हैं तो भी उन्हें समन्तभद्र और कुन्द-कुन्द से पूर्ववर्ती माना जा सकता है। कार्तिकेयान्प्रेक्षा में जिन अंशों या घटकों या तत्त्वों की चर्चा है वे गुणस्थान विकास का आधार रही है ऐसा मानना कदाचित अनुचित नहीं लगता। षटखण्डागम- दिगम्बर कर्म साहित्य'गुणस्थान' के स्थान पर जीवसमास का उपयोग होने के बावजूद षट्खण्डागम ग्रंथ में गुणस्थान अवस्थाओं की पूर्णता देखने को मिलती है। श्वेताम्बर साहित्य की आवश्यक नियुक्तियों में 14 भूतग्रामों का उल्लेख है किन्तु गुणस्थान अवस्थाओं का नहीं | समवायांग ग्रंथ में उपलब्ध 14 स्थानों को जीवठाण कहा है। पं. दलसुखभाई आदि विद्वानों का मानना है कि यह अंतिम अंश वाचना के समय इसमें जोड़ा गया जो वास्तव में पाँचवीं सदी के उत्तरार्ध की रचना है। षट्खण्डागम में गुणस्थानों का वर्णन चतुर्थ खण्ड (वेदना खण्ड) के अन्तर्गत सप्तम वेदनाविधान की चूलिका में से लिया गया है। कुछ विद्वानों का मत है कि चूलिका की ये गाथाएं इस ग्रंथ का मूल अंश न होकर आचारांग नियुक्ति से प्रेरित(गाथा 222-223) एवं मिलती-जुलती हैं। ठीक उसी प्रकार उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र भी कसायपाहुड़ ग्रंथ से प्रेरित है। षट्खण्डागम में गुणस्थान सम्बन्धी गाथाओं एवं आचारांग नियुक्ति की गाथाएं कसाय शब्द के अतिरिक्त पूरी ज्यों की त्यों हैं
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