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________________ दिगम्बर की अचेल परम्परा में कसायपाहुड को छोड़कर षट्खण्डागम, मूलाचार भगवती आराधना, देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका, भट्ट अकलंक का राजवर्तिक, विद्यानन्दी के श्लोकवर्तिक में इस सिद्धान्त का उल्लेख है। तत् इन नामों का उल्लेख न होना आश्चर्य का विषय है यदयपि नवें अध्याय में कर्म निर्जरा के रूप में आत्मविशद्धि की स्थितियों का उल्लेख है। यह कहा जा सकता है कि जैन परम्परा में तीसरी व चौथी सदी तक गुणस्थान की अवधारणा अनुपस्थित थी। पाँचवी सदी में यह सिद्धान्त पहले जीवस्थान या जीव समास के नाम से अस्तित्व में आया । मूलाचार में गुणस्थान के लिए गुण का प्रयोग किया गया है। भगवती आराधना में ध्यान के प्रसंग में चौदह में से सात गुणस्थानों का वर्णन है। देवनंदी की सर्वार्थसिद्धी टीका में सत्प्ररूपणा के माध्यम से मार्गणाओं व मार्गणा के संबन्ध में चर्चा की गई है। षट्खण्डागम समान्य शौरसेनी व गद्य में तथा जीवसमास महाराष्ट्री प्राकृत व पद्य में रचित है। षट्खण्डागम व जीवसमास में आठ अनुयोग द्वार हैं। शवेताम्बर परम्परा के आगम प्रधान ग्रंथों में मार्गणा व गुणस्थानों का उल्लेख नहीं मिलता है जो दिगम्बर परम्परा में है। जैन परम्परा में अंगधरों के समान ही पूर्वधरों की एक स्वतंत्र परम्परा रही है और कर्म साहित्य विशेष रूप से पूर्व साहित्य का विशेष अंग रहा है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गुणस्थान अभिगम की उपस्थिति की समीक्षा करने पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दिगम्बर - श्वेताम्बर दोनों ही जैन सम्प्रदायों के प्रमुख प्राचीन ग्रंथों में इन 14 स्थितियों का गुणस्थान के रुप में उल्लेख न होना इस अवधारणा की इन ग्रथों से प्राचीन होना दर्शाता है। किन्तु समान शब्दावली की अनुप्रयुक्ति यह सम्बन्ध स्पष्ट करती है कि गुणस्थान की रचना छठी शताब्दी के पूर्व की है एवं आगम के समकालीन रही है। इस समय के पश्चातवर्ती ग्रंथों में 14 गुणस्थानों का किसी न किसी रुप में जिक्र होना भी यही सिद्ध करता प्रतीत होता है। श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान शब्द सर्व प्रथम आवश्यक चूर्णि - सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थ भाव्यवृति, हरिभद्र की आवश्यकनियुक्ति टीका (जो 8वीं के पूर्व तक की रचना है) में प्रयोग हुआ है। दिगम्बर परम्परा में पाँचवी-छठवीं सदी के प्रमुख ग्रंथ षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना हैं जिनमें गुणस्थानों की उपस्थिति है। 14 गुणस्थान व्यवस्थित स्वरूप में षट्खण्डागम में मिलते हैं भले ही उन्हें जीवसमास कहकर सम्बोधित किया हो। मूलाचार में 14 गुणस्थानों के गुणनाम है। पूज्यपाद देवनन्दीजी की सर्वार्थसिद्धि टीका में भी इन गुणस्थानों (गुणट्ठाण) का विस्तृत उल्लेख है इसमें 14 मार्गणाओं और गुणस्थान के सम्बन्ध
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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