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________________ 2. दर्शनावरण(9)- चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शनावरण तथा निद्रा(तीव्र निद्रा), प्रचला (खड़े-खड़े सो जाना), प्रचला- प्रचला(चलते- चलते सो जाना) और स्त्यानगृद्धि(जागृत अवस्था में सोचे हए काम को निद्रावस्था में करने का सामर्थ्य प्रकट होना)। 3. वेदनीय(2)- साता वेदनीय और असाता वेदनीय। 4. मोहनीय(28)- दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृति(1. मिथ्यात्व मोहनीय- जिसके उदय से तत्वों के यथार्थरूप में रुचि न हो। 2. मिश्र मोहनीय- जिस कर्म के उदय काल में तात्विक रुचिअरुचि की स्थिति डवाँडोल रहती है। 3. सम्यक्त्व मोहनीय- जिसका उदय तात्विक रुचि का निमित्त होकर भी औपसमिक व क्षायिक भाव वाली तात्विक रुचि को प्रतिबन्धित करता हो।), चारित्र मोहनीय कर्म की 25 प्रकृतियां(अ- 16 कषाय- अनन्तानुबन्धी अर्थात तीव्रतम, अप्रत्याख्यान अर्थात तीव्र जो महा विरति को प्रतिबन्धित करे, प्रत्याख्यान अर्थात् कमतीव्र जो देशविरति की जगह मात्र महा विरति को ही प्रतिबन्धित करे, संज्वलन अर्थात अतिअल्प तीव्रता जहाँ प्रतिबन्ध तो नहीं होता किन्तु मालिन्य अवश्य रहता हो एसे क्रोध मान माया लोभादि कषाय चतुष्क तथा 9 कषाय- हास्य, रति प्रीति), अरति, भय, शोक, जुगुप्सा (घृणा), स्त्रीवेद (स्त्रैण भावविकार), पुरुषवेद (पौरुष भावविकार) तथा नपुंसकवेद (नपुंसक भावविकार) व मोहनीय आदि। 5. आयु(4)- देव, मनुष्य,त्रियञ्च और नरकायु। 6. नाम (42)-(अ) 14 पिण्ड प्रकृतियां- देवादि चार गतियां प्राप्त कराने वाला कर्म, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक का अनुभव कराने वाला कर्म, शरीरगत आंगोपांग का अनुभव, गृहीत और औदारिक पुल तथा बुद्ध पुग्लों के साथ विविध आकारों वाला कर्म संघात, अस्थिबन्ध रचनारूप संहनन तथा विविध आकृतियों का निमित्त कर्म संस्थान, पाँच वर्ण दो गन्ध, पाँच रस तथा आठ स्पर्श वाला, विग्रह द्वारा आकाशगामी, प्रशस्त और अप्रशस्त गमन का कारक कर्म विहायोग गति। (आ) त्रस दशक व स्थावर दशक। (इ) 8 प्रत्येक प्रकृतियां- गुरु-लघु शरीर, जिव्हा आदि अवयव,दर्शन वाणी की शक्ति, श्वास लेने का नियामक कर्म, उष्ण - शीत का नयामक कर्म आदि शरीर के अंगों को यथोचित व्यवस्थित करने वाले कर्म हैं। धर्म तीर्थ प्रवर्तन की शक्ति देने वाला कर्म तीर्थंकर है। 7. गोत्र कर्म (2) -प्रतिष्ठा प्राप्त कराने वाला उच्च गोत्र तथा इसके विपरीत निम्न गोत्र। 8. अन्तराय(5) - दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य अन्तराय। प्रत्येक गुणस्थान की प्रारम्भिक व अन्तिम अवस्था में बंध, सत्ता, उदय और उदीरणा के योग्य कर्म प्रकृतियों की संख्या में कभी-कभी अंतर आ जाता है। विकास यात्रा के दो गुणस्थानों के बीच एक संक्रमण की भी अवस्था होती है जो पूर्ववर्ती गणस्थान की समाप्ति और उत्तरावर्ती गणस्थान 86
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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