SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय-5 गुणस्थान एवं कर्म सिद्धान्त गुणस्थान एवं कर्म प्रकृतियां व सिद्धान्त गुणस्थान सिद्धान्त वास्तव में कर्म बंधन से मुक्ति की विकास यात्रा है। इस प्रकार इन दोनों में नियत सहसम्बन्ध अवश्य है। कसायपाहुड़ और षट्खण्डागम ( महाकर्म प्रकृतिशास्त्र) मूलतः कर्म सिद्धान्त के ग्रन्थ हैं। यद्यपि कषायपाहुड़ में भले ही चौदह गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है फिर भी सास्वादन आदि कुछ गुणस्थानों को छोड़कर शेष के नामों का निदेश इस ग्रन्थ में उपलब्ध है। इसी प्रकार षट्खण्डागम में भी भले ही गुणस्थान शब्द का प्रयोग न हुआ हो किन्तु जीव समास शब्द के द्वारा इन चौदह स्थितियों को स्पष्ट किया गया है। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि में तथा श्वेताम्बर परम्परा के पाँच कर्म ग्रन्थों में से “कर्मस्तव" में इन चौदह गुणस्थानों के संन्दर्भ में कर्मबंध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता आदि का ही विचार किया गया है। जैन दर्शन की यह मान्यता है कि जिस प्रकार लौह पिण्ड में अग्नि तत्त्व समाविष्ट हो जाता है उसी प्रकार कर्म वर्गणाएं पुदगल प्रदेशों के साथ (बंध) समाविष्ट हो जाती हैं। कर्म का सत्ता काल- बंध के पश्चात् अपने फल विपाक अर्थात् उदय के पूर्व की अवस्था को कर्म का सत्ता काल कहा जाता है। उदय- जब कर्म वर्गणाएं पुद्गगल में अपने सत्ता काल के समाप्त होने पर अपना फल प्रदान करती हैं तो उसे कर्मोदय कहते हैं। उदीरणा- कर्मों का सत्ता काल समाप्त होने से पूर्व ही उन्हें उदय में लाकर उनके फलों को भोग लेना उदीरणा है इसे सविपाक निर्जरा या पुरुषार्थ कहा जाता है। उदीरणा काल लब्धि पूर्ण होने पर होती है जिसे नियति कहा जाता है। क्षय उदय और उदीरणा के पश्चात् जो कर्म निर्जरित हो जाते हैं वह क्षय है। उपशम- जब जीव अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उदय में आने वाले कर्म को अपना विपाक या परिणाम देने से रोक लेता है तो यह उपशम है। उपशम अर्थात् उस कर्म (मोह) की नजर से बचकर आगे बढ़ना है। इन उपर्युक्त घटकों के आधार पर ही गुणस्थान व कर्म के परस्पर सम्बन्ध को समझा जा सकता है। बंध योग्य कर्म एवं उनकी प्रकृतियां (120) तत्त्वार्थ सूत्र में इनका विस्तृत वर्णन है1. ज्ञानावरण (5)- मति आदि पाँच ज्ञानों के आवरण 85
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy