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________________ साधक को आत्मवान बनाती है जैन दर्शन के गुणस्थान अभिगम के अनुरूप ये सभी लक्षण सातवें गुणस्थान के समकक्ष माने जा सकते हैं। 13वें और 14वें गुणस्थान वर्णित समकक्ष स्थितियां और गीता13वें और 14वें गुणस्थान के समकक्ष स्थितियां गीता के सर्व संकल्प त्याग प्रेरित इस श्लोक में मिलती हैं। यथा-. यदाहिनेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते। सर्व संकल्प संन्यासी योगारूढस्तवोच्यते।। 6 | 4 || अर्थात् जो समस्त प्रकार की इन्द्रियासक्ति का त्याग कर चका है और इस प्रकार के कर्म सम्पादन से रहित है ऐसा सर्व संकल्प त्यागी व्यक्ति योगारूढ़ होता है। आगे की उत्कृष्ट स्थिति को स्पष्ट करते हुए इस श्लोक में कहा गया हैजितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा - समाहितः । शीतोष्ण सुखदुःखेषु तथा मानायमानयो ।। 6 | 7 || अर्थात् जो आत्मा शीत-उष्ण, सुख-दुःख व मान-अपमान से पूर्णतः निर्विकार एवं प्रशान्तमान है वह सच्चिदानन्दघन परमात्मा में दृढ़ता पूर्वक स्थित हो जाता है। इस ज्ञान में परमात्मा के सिवाय कुछ नहीं रहता। 12वीं क्षपक श्रेणी क्षीण मोह गुणस्थान व सयोगी केवली साधक के समान स्थिति का दर्शन गीता के निम्न लिखित श्लोक में मिलता है। ये सततमात्मानं रहसि स्थितः | एकाकी यतचित्तात्मा निराशीर परिग्रह || 6 | 10 || युज्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियत मानसः । शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।। 6 | 15 || अर्थात् जिस योगी ने शरीर, मन व इन्द्रियादि को वश में कर लिया हो, एकान्त में स्थिर होकर निरन्तर परमात्म में रत हो। मुझमें स्थित ऐसा योगी अंत में परमात्मा की पराकाष्ठा रूप शान्ति को प्राप्त होता है। समीक्षाउपरोक्त के तुलनात्मक विश्लेषण से स्पष्ट है कि दोनों दर्शनों में साधना प्राप्ति का मार्ग एक है-भक्ति, ज्ञान,कर्म और संन्यास स्वीकृत हैं, निष्काम व निरासक्ति पूर्ण हैं। यहाँ लक्ष्य की ओर बढ़ने की पहली शर्त है- सम्यग्श्रद्धा, सम्यग्दृष्टि पूर्ण सम्यक आचरण। यह मार्ग शाश्वत है, सनातन है जो न कभी किसी के लिए अवरुद्ध था न है और न ही होगा। जैन दर्शन में वर्णित गुणस्थानों के साथ यदि गीता के त्रिगुण सिद्धान्त के साथ तुलना करें तो हम पाते हैं कि तमोगुण भूमि का जीव मिथ्यादृष्टि विशष्टताओं से यथेष्ट साम्य रखता है। तमोगुण धारक जीव यथार्थ ज्ञानाभाव के कारण योग्य कर्माचरण से परे रहता है। तमोगुण भूमि में मृत्यु प्राप्त प्राणी मूढ़ योनि (अधोगति) में जन्म लेता है। बौद्ध दर्शन में यह अन्धपृथग्जन भूमि के समान है। 139
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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