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________________ दूसरी स्थिति तमोगुणधारी उन प्राणियों की है जो इसके उत्तरोत्तर काल में हैं अर्थात् जीवनदृष्टि और श्रद्धा तो तापस है किन्तु आचरण सात्विक नहीं है यथा- आर्तभाव या कामनादि के साथ भक्ति का आचरण । गीता में इन्हें संस्कृति (सदाचारी) एवं उदार कहा गया है साथ ही यह भी स्वीकार किया गया है कि ऐसा जीव मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता। जैन दर्शन के गुणस्थान सिद्धान्त में यह अवस्था सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के निकटवर्ती मिथ्यादृष्टि गुणस्थान वाले प्राणियों जैसी है। बौद्ध दृष्टि से यह अवस्था कल्याण पृथग्जन या धर्मानुसरी भूमि है। तीसरी स्थिति रजोगुण अभिमुख है। राजस का आशय है भोग विषयक चंचलता श्रद्धा एवं बुद्धि । बुद्धि की अस्थिरता एवं संशयपूर्णता आध्यात्मिक या यथार्थ आचरण से दूर वनाए रखती है तथा जीव स्थाई निर्णय लेने में असमर्थ होता है। गीता में अर्जुन के व्यक्तित्व में मूढ़ चेतना का प्रस्तुतीकरण देखने को मिलता है। अज्ञानी और अश्रद्धालु (मिथ्यादृष्टि तो विनाश को प्राप्त होते ही हैं। गीता के अनुसार संशयात्मा की दशा उससे भी बुरी बनती है वह तो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के सुखों से वंचित रहता है यह अवस्था जैन दर्शन के मिश्र गुणस्थान के समकक्ष है। जैन दर्शन की यह मान्यता है कि तृतीय मिश्र गुणस्थान में जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता जबकि गीता का मत है कि रजोगुण धारक जीव मृत्यु को प्राप्त होने पर आसक्ति प्रधान योनियों में भ्रमण करता हुआ जन्म- मरण करता रहता है। चौथी स्थिति वह है जिसमें जीव का दृष्टिकोण तो सात्विक है किन्तु आचरण तामस और राजस। इसकी तुलना चतुर्थ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से की जा सकती है। नवमें अध्याय में इस श्रेणी के जीवों के संदर्भ में श्री कृष्ण कहते हैं कि दुराचारणात् (सुदुराचारी ) व्यक्ति जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं उनको भी सम्यग्ररूपेण साधु (सात्विक प्रकृति वाला) स्वीकार कर लेना चाहिए। बौद्ध विचारधारा में इसे स्रोतापन्न भूमि (निर्वाण मार्ग प्रवाह से पतित) कहा गया है। गीता और जैन दर्शन के अनुसार ऐसा साधक मुक्ति प्राप्ति की संभावना लिए रहता है। आगे के आचरण को लेकर जैन दर्शन में कई उप-विभाग या गुणस्थान श्रेणी हैं। जबकि गीता में इस दृष्टि से गहन विश्लेषण नहीं है तथापि अर्जुन द्वारा कई शंकाओं एवं कृष्ण द्वारा उनके समाधान को लेकर छठे अध्याय में उल्लेख मिलता है कि जो व्यक्ति श्रद्धा युक्त (सम्यग्दृष्टि) होते हुए भी चंचल मन के चलते योग पूर्णता को प्राप्त नहीं करते उनकी क्या गति होती है ? इसके समाधान में श्री कृष्ण स्पष्टता करते हैं- चंचलता के चलते परम लक्ष्य को प्राप्त हुए साधु सम्यक श्रद्धा व आचरण युत कर्म के कारण ब्रह्म प्राप्ति की 140
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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