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________________ आकांक्षा किए बिना अपने जिन नियत कर्तव्यों का निर्वाह करता है उन्हें सात्विक कर्म या गुण कहा जाता है। जैन दर्शन के गुणस्थान अभिगम में ममत्व रहित निष्काम अणुव्रत व महाव्रत पालन की प्रक्रिया को चतुर्थ (उत्तरार्ध स्थिति) से सप्तम गुणस्थान तक दर्शाया गया है जो गीता में वर्णित सत्व अवस्था से मेल खाती है। टिप्पणी- 14 गुणस्थानों के अन्तर्गत आध्यात्मिक विकास की सूक्ष्मता व गहनता की दृष्टि से प्रत्येक गुणस्थान में तीन उप भेद किए जा सकते हैं- गुणस्थान में प्रवेश के समय की आरम्भिक स्थिति जिसमें उस गुणस्थान का प्रभाव जीव पर कम प्रमाण में देखने को मिलता है, दूसरी मध्य स्थिति जिसमें जीव उस गुणस्थान के लक्षणों को अंगीकार करते हुए आगे बढ़ने लगता है तथा तृतीय उत्तरार्ध स्थिति जिसमें जीव उस गुणस्थान की चरमसीमा को स्पर्श कर लेता है। - चतुर्थ सम्यकत्व गुणस्थान के समकक्ष गीता में कृष्ण अर्जुन संवाद के माध्यम से समझाने का प्रयत्न किया गया है कि जो व्यक्ति योग या आत्म तत्व में श्रद्धा तो करता है किन्तु संयमी नहीं है उसकी गति क्या होगी ? अर्जुन की इस शंका के समाधान में श्री कृष्ण स्पष्टता करते हैं- अपि चेत्सुदुराचारी भजते मामन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।19 | 301। अर्थात् एक असंयमी किन्तु मेरे में (आत्म में) श्रद्धान या भक्ति रखने वाले जीव को साधु ही मानना चाहिए क्योंकि उसका व्यवसाय या श्रद्धान सम्यक् है जो उसे एक न एक दिन मोक्ष मार्ग पर लगा कर रहेगा। सत्वगुण की अंतिम दशा और गुणस्थान- इसका अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि जो समस्त कर्मों व बाह्याभ्यन्तर भोगों के प्रति आसक्ति न रखने वाला संन्यासी परमात्म प्राप्ति की योग्यता का धारक बन जाता है। जैन दर्शन में इस साधना पथ की तुलना छठे - सातवें गुणस्थान से की जा सकती है जहाँ से साधक उच्च गुणस्थानों में आरोहण करता है। (द) जीव की करुणातीत व गुणातीत अवस्थाः आध्यात्म उन्नति की सर्वोत्कृष्ट अवस्था को गीता में जीव की करुणातीत व गुणातीत अवस्था कहा गया है। जीव की त्रिगुणातीत अवस्था को निम्न श्लोकों से भी स्पष्ट किया गया है- समदुःख सुखः स्वस्थः समलोटाश्म काञ्चनः । तुल्यप्रियप्रयो धीरस्तुल्यनिदात्म संसुतुतिः ।। 14 । 24।। मानापमान्योस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्चते ।। 14 । 25।। त्रैगुणयविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन । निर्दे॒वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ।। 2 । 45 ।। अर्थात् सुख-दुख लाभ हानि आदि द्वन्द्व रहित समभावी, नित्य-अविनाशी व सर्वज्ञता के प्रति अटलता रखने वाला सत्त्व गुणधारी है। कामवासना और सर्व- आरंभ - परिग्रह का त्याग निर्योग क्षेम है। यह स्थिति 138
SR No.009365
Book TitleGunasthan ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepa Jain
PublisherDeepa Jain
Publication Year
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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