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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
काल है तथा स्वयं वर्तना लक्षणयुक्त निश्चय काल है। 7 आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि 'परमार्थकालो वर्तनालक्षणः, परिणामादि लक्षणो व्यवहारकालः '18 अर्थात् परमार्थ काल वर्तना लक्षण वाला और व्यवहार काल परिणाम आदि लक्षण वाला है।
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व्यंजन पर्याय के वर्तमानरूप में ठहरने जितने काल को व्यवहार काल कहते हैं ।" यह समय, आवलि, उच्छ्वास, नाडी आदि अनेक प्रकार का होता है, इसकी गणना सूर्यादि ज्योतिषचक्र के घूमने से होती है |2° आचार्य पूज्यपाद भी इसीप्रकार की बात कहते हैं कि समय और आवली आदि रूप व्यवहार काल विभाग गतिवाले ज्योतिषी देवों के कारण किया गया है । 21 आचार्य अकलंकदेव ने भी व्यवहार काल का कारण ज्योतिषी देवों को ही बताया है । 22
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व्यवहार काल का क्षेत्र बताते हुये आचार्य नेमीचन्द्र लिखते हैं कि – 'माणुसखेत्तम्हि 23 अर्थात् यह मनुष्य क्षेत्र में ही होता है। वस्तुतः व्यवहार काल का संबंध सूर्य, चन्द्रादि विमानों के गमन से है। ये सभी विमान मनुष्य लोक में ही गमन करते हैं, अतः व्यवहार काल भी मनुष्य क्षेत्र में ही प्रवर्तता है। आचार्य कुन्दकुन्द पंचास्तिकाय 24 में कहते हैं कि समय, निमिष, काष्ठा, कला,
17. द्रव्यसंग्रह, गाथा-21
18. सर्वार्थसिद्धि, 5/22/569/ पृ. 223 19. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा-572 20. आदिपुराण, 3/12
21. सर्वार्थसिद्धि, 4/14/469/ पृ. 185 22. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 4/14/पृ.407 23. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा-577 24. पंचास्तिकाय, गाथा-25