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________________ 11 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में घड़ी, दिन-रात, मास, ऋतु, अयन और वर्ष - इनमें पराश्रितपना अर्थात् पर की अपेक्षा होने से इन्हें व्यवहार काल कहा जाता है। निश्चय काल का स्वरूप बताते हुये आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं - काल द्रव्य पाँच वर्ण व पाँच रस से रहित, दो गन्ध व आठ स्पर्श से रहित, अगुरुलघु, अमूर्त और वर्तना लक्षणवाला है ।25 आचार्य अमृतचन्द्र क्रम से होने वाली समयरूप पर्यायों को व्यवहार काल तथा उसके आधारभूत द्रव्य को निश्चय काल कहते हैं। उनका मूल कथन इसप्रकार है - 'क्रमानुपाती समयाख्यः पर्यायो व्यवहारकालः, तदाधारभूतं द्रव्यं निश्चयकालः । 26 इसीप्रकार का भाव वे आगे भी व्यक्त करते हैं - 'निश्चयकालो नित्यः द्रव्यरूपत्वात्, व्यवहारकालः क्षणिकः पर्याय रूपत्वादिति अर्थात् निश्चयकाल द्रव्यरूप होने से नित्य है तथा व्यवहार काल पर्यायरूप होने से क्षणिक है। उक्त सम्पूर्ण आगम प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तना लक्षण युक्त कालाणु निश्चय काल द्रव्य है तथा जो दूसरे द्रव्यों के परिणमन में निमित्त हो वह व्यवहार काल है। तथा जब द्रव्यों के परिणमन में सहयोगी होने को निश्चय काल कहा जाता है, तब घड़ी-घण्टा, दिन-रात आदि को व्यवहार काल कहते हैं। 25. पंचास्तिकाय, गाथा-24 26. वही, गाथा-100 की टीका 27. वही, गाथा-101 की टीका
SR No.009364
Book TitleKaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanjiv Godha
PublisherA B D Jain Vidvat Parishad Trust
Publication Year2013
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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