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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में अर्थात् बिखरी हुई रत्नराशि के समान देखते हैं तो वह निश्चय काल अर्थात् कालाणु सम्पूर्ण लोकाकाश में मौजूद है; किन्तु जब काल को दिवस-रात्रि के कारण की दृष्टि से देखते हैं तो उसका (व्यवहार काल का) सद्भाव मात्र ढाई द्वीप में कहा जा सकता है। यह सापेक्ष कथन है, वस्तुतः तो व्यवहार काल का सद्भाव भी सम्पूर्ण लोक में है।
काल के भेद -
काल एक द्रव्य होने से उत्पाद–व्यय-ध्रुवता से युक्त है। उसमें भी द्रव्य-गुण-पर्यायें पायी जाती हैं। यद्यपि काल में प्रतिक्षण परिणमन होने से उत्पाद–व्यय होते रहते हैं, तथापि वस्तु स्वरूप (द्रव्य) की दृष्टि से वह जैसा का तैसा रहता है, उसके स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता, वह कभी भी कालान्तर रूप या अकालरूप नहीं हो जाता। अतीत, वर्तमान या भविष्य कोई भी अवस्था क्यों न हो - सभी में 'काल, काल, काल...' यह साधारण व्यवहार पाया ही जाता है। अविरल प्रवाहमान उस काल द्रव्य के विविध अपेक्षाओं से अनेक भेद मिलते हैं। जैसे - व्यवहार काल, निश्चयकाल, भूत-वर्तमान-भविष्य काल, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल आदि।
1. व्यवहार और निश्चय काल -
काल द्रव्य के मुख्य (निश्चय) और अमुख्य (व्यवहार) - ऐसे दो भेद हैं, इनमें से मुख्य काल के आश्रय से अमुख्य काल की प्रवृत्ति होती है। जो दूसरे द्रव्यों के परिवर्तनरूप है, वह व्यवहार 16. तिलोयपण्णत्ती, 4/282