SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 911
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गणधराणां नामादिकम् कल्पसूत्रे मूलम्-अत्थ महत्थ खाणिंसु, समणवक्खाणं कहण णिव्वाणं, पयडए सशब्दार्थे || महुरवाणिं, पयउपणमामि इसगाणं ॥४७॥ ।।८९५|| भावार्थ--मोक्ष साधन का ही जिनके महार्थ की ख्याति है तथा प्रथम सूत्र कहकर फिर उसका महा. अर्थ. कहे ऐसे सूत्रार्थ के खानी इस प्रकार उत्तम व्याख्यान के दाता, सदैव स्वभाव से समाधी प्रकृति वाले, मिष्ट इष्ट वचनोच्चारक, आत्मसंयम की यत्नावंत, इमाचार्य को नमस्कार ॥४७॥ मूलमू-तव.णियम सच्च संजम, विणयज्जव खंति मद्दवरयाणं। सलिगुणगहियाणं, अणुओगी जुगप्पहाणाणं ॥४८॥ ___ भावार्थ-तप, नियम, सत्य संयम चारित्र, विनय, सरलता, क्षमा, निरहंकार, इत्यादि गुणों में रक्त शीलादि गुणकर गहरे द्वादशांगी के अर्थ में युग प्रधान ॥४८॥ ॥८९५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy