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कल्पसत्रे
गणधराणां
नामादिकम्
सशब्दार्थे
॥८९४॥
मूलम्-भूयहिय अप्पगन्भे, वंदेहं भूयदिन्न मायारिए ॥ भवभय वुच्छेय | करे, सीसे नागज्जुणरिसिणं ॥४५॥ ...
भावार्थ---सर्व जीवों के हित करने में बल्लभ ऐसे सतावीसमें पाट में जो भूत दीन | नाम के आचार्य है उनको वंदन करता हूं नरक तिर्यंचादि दुर्गति के भय के निवारण करने वाले सर्व भवांतरों के भय के निकन्दन करने वाले नागार्जुन ऋषीश्वर को वंदन ।४५
मूलम्-सुमुणिया णिच्चाणिच्चं सुमुणिय सुत्तत्थ धारयं निच्चं, वंदेहं लोहिच्चे सवभावुभावणाणिच्चं ॥४६।
भावार्थ-शाश्वत अशाश्वत पदार्थों का ज्ञान सम्यक् प्रकार हुवा है, शुद्धाचारी सूत्र अर्थ के धारक जावजीव पर्यत अखण्डाचार के पालक लोहित नाम के आचार्य होते हुए भाव को सदैव अच्छी तरह दर्शाने वाले को वंदन ॥४६॥
॥८९४॥