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नामादिकम्
कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥८८७॥
| कीर्ति का विस्तार पाया था, द्वीप समूह जैसे ऐसे आर्य समुद्र स्वामी को वंदना । गणधराणां करता हूं ॥२९॥
- मूलम्-मणग करगं चरगं, पभावगं णाणदंसणगुणाणं ॥ वंदामि अज्ज मंगु, सुयसागर पारगंभीरं ॥३०॥ ___ भावार्थ-१५ उपसर्गादि उत्पन्न होने से जो कदापि क्षोभित नहीं होवे, समुद्र की तरह गंभीर बुद्धिवंत, शास्त्र के ज्ञाता, क्रिया कल्पके करने वाले, चारित्रवंत, धैर्यवंत जिनशासन के दीपक, ध्यानी ज्ञानदर्शन चारित्र गुन के धारक, सूत्र समुद्र के . पारगामी, ऐसे आर्यमंगू आचार्य वंदना करता हूं ॥३०॥
- मूलम्-वंदामि अन्जधम्म, वंदे तत्तोय भद्दगुत्तं च । तत्तोय अज्जवइरं, तवनियमगुणेहिं वइरसमं ॥३१॥
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