________________
प्रभवस्वामि। परिचयः
||७६७||
कल्पसूत्रे । उसके बाद दूसरे दिन जंबूकुमार उन प्रभव आदि चोरों के साथ सुधर्मास्वामी के सशब्दार्थे H; समीप दीक्षित हुए।
[जंबूसामिम्मि मोक्खं गए तप्पट्टे पभवसामी उवाविसीअ] जंबूस्वामी के मौक्ष पधारने पर प्रभवस्वामी उनके पट्ट पर बैठे [सो उ जंगम कप्परुक्खोव्व भव्वजीवाणं मनोरहं पूरेमाणो] वे चलते फिरते कल्पवृक्ष के समान भव्य जीवों के मनोरथों को पूर्ण करते हुए [सुयणाण सहस्सकिरणकिरणेहिं मिच्छत्ततिमिरपडलं विणासेंतो] श्रुतज्ञान
रूपी सूर्य की किरणों से मिथ्यात्व रूपी अन्धकारके पटल का विनाश करते हुए [भव्व । हिययकमलाई वियासेतो] भव्य जीवों के हृदयकमल को विकसित करते हुए [सुहम्म
सामि परिपोसियं चउव्विहसंघवाडियं देसणामिएणं अहिसिंचिय] सुधर्मास्वामी द्वारा पोषित चतुर्विध संघरूपी वाटिका को अपने उपदेशामृत से सींचते हुए [उवसमविवेगवेरमणाइ पुप्फेहिं पुफियं अत्त कल्लाणफलेहिं फलियं च कुव्वंतो विहरइ] उपशम और
७६७॥