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________________ प्रभवस्वामि परिचय: ॥७६४॥ S . कल्पसूत्रे । अहिएहिं चउहिं चोरसएहिं परिखुडो रायगिहे णयरे जंबूकुमारस्स गिहे चोरियटुं पविटो] सभन्दाथै E यह सुनकर प्रभव चोर अपने साथी ४९९ चोरों के साथ राजगृह नगर में आकर चोरी करने के लिए जंबूकुमार के घर में घुसे [तत्थ सो ओसावणीए विज्जाए सव्वे जणे निदिए करीअ] उन्होंने अवस्वापिनी विद्या से वहां के सब लोगों को निद्राधीन कर दिया [भावसंजयम्मि जंबूकुमारम्मि सा विज्जा निष्फला जाया] किन्तु जंबूकुमारतो भाव साधु हो चुके थे। अतः उनपर अवस्वापिनी विद्या का असर नहीं हुआ [सो जागरमाणो चेव चिट्ठीअ] वे जगते ही रहें [तप्पभावेण तस्स अट्ट वि भज्जा जागरमाणीओ चेव ठिया] उनके प्रभाव से उनकी आठों पत्नियां भी जागती ही रहीं [तओ सो पभवो चोरो चोरेहिं सद्धिं ताओ सुवण्णमुद्दाओ गहिय चलिउ मारद्धो] उसके पीछे प्रभव चोर अपने साथी चोरों के साथ उन सब सुवर्णमुद्राओं को बटोर कर चलने को उद्यत हुए [तया जंबूकुमारो नमुक्कारमंतप्पभावेण तेसिं गई थंभीअ] तब जंबू- ॥७६४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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