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मूलम्-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स पट्टम्मि सुधर्मकल्पसूत्रे सशब्दार्थे । सिरि सुहम्मसामि अहेसि ॥४६॥
.परिचयः ॥७४७॥
शब्दार्थ-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्त भगवओ महावीरस्स] उस काल , ... और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के [पट्टम्मि सिरि सुहम्म सामी अहेसि] पाट पर सुधर्मा स्वामी थे ॥४६॥
भावार्थ-उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के पाट पर श्री सुधर्मा स्वामी थे। श्री गौतम स्वामी केवली हो चुके थे, अतः पाट पर नहीं बैठे; इस कारण सुधर्मा स्वामी पाट पर प्रतिष्ठित किये । इसका कारण यह है-आगम में । 'हे आयुष्मन् । मैंने सुना है, उन भगवान ने ऐसा कहा है, ऐसा उल्लेख है। अगर । पाट पर केवली की स्थापना होती तो केवली सर्वदर्शी-सर्वज्ञ होते हैं, उन्हें किसी से कुछ सुनने की आवश्यकता नहीं होती, तो फिर वह ऐसा न कहते कि-भगवान् ने ।
॥७४७॥