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पत्रे
दा
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भयविप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे, एवं करण-चरण- णिग्गह- णिच्छय'अज्जव मद्दव-लाधव-खंति-गुत्ती-मुत्ती-विज्जामंत-बंभचेर - वेय- णिय - णियम - सच्चसोय-णाणदंसण-चरित्तप्पहाणे ओराले घोरे, घोरखए, घोर तवस्सी, घोर बंभचेर..वासी, उच्छूढ सरीरे, संखित्ते विउलतेउलेसें, चोद्दस पुव्वी चरणाणोवगए ॥ ४५ ॥
भावार्थ-उस काल और उस समय में श्रमण भगवंत श्री महावीर स्वामीजी के ज्येष्ठ अंतेवासी - शिष्य आर्य सुधर्मास्वामी स्थविर कैसे थे सो कहते हैं-जाति संपन्न - मातृपक्ष निर्मल था, कुल संपन्न - पितृपक्ष निर्मल था, बल संपन्न - वज्रऋषभनाराचं संघयनबाले थे, रूपक - सर्वांगसुन्दर अर्थात् समचतुस्र संस्थान के धारक, विनय नम्र सम्पन्न कोमल स्वभाववाले ज्ञान -मति श्रुत अवधि व मनःपर्यव चार ज्ञानके धारक, दर्शनक्षायिक सम्यक्त्व के धारक, चारित्र - सामायिकादि उत्तम चारित्र के धारक, लघुता
सुधर्मस्वामि परिचयः
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